October 15, 2024
City Life Style

गिल्ली-डंडा

कहाँ गए वो दिन…कुछ यादें

वो मेरा बचपन था | आज भी जब गाँव के लोगों को सर पर लकड़ी तोकते देखती हूँ, तो याद आता है कि ऐसी लकड़ियों की तलाश हमको भी रहती थी जब हम बच्चे थे | अच्छी लकड़ी ढूंढ कर के उसको छीलना, उसके एक कोने को नुकीला करना और एक छोटा टुकड़ा लेकर उससे गिल्ली बनाना … याद आया न आपको भी बचपन का वो गिल्ली-डंडा | आज तो जगह ही नहीं बची इस खेल को खेलने के लिए | अब फुर्सत भी कहाँ है किसी के पास कि बच्चों के लिए हम गिल्ली और डंडा तैयार कर के दें | 

कल ही कहीं से आवाज़ आ रही थी …टिन के डब्बों की | बाहर जाकर देखने की जिज्ञासा को रोक नहीं पाई, फिर से बचपन जो याद आ गया था | गाँव का एक बच्चा या शायद किसी मजदूर का बच्चा गधे की पीठ पर बैठा तेज़ी से गधों को हांकता ले जा रहा था | गधों की पीठ पर ईटें लदी हुई थीं और जिस गधे पर वो खुद बैठा था उसपर टिन के कई खाली डब्बे बंधे थे | डब्बों की वो टन-टन किसी संगीत से कम नहीं थी और मन को भा रही थी… बचपन में डब्बे बजा-बजा कर खेलते जो थे | आजकल तो नए-नवेले म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स होते हैं मगर वो मजा नहीं क्योंकि अपनेपन का एहसास तो हमारे बचपन में था | बिना खर्चे का संगीत हर समय हमारे पास उपलब्ध रहता था |

दरअसल ये लिखते लिखते मंदिर की आरती भी बहुत याद आई जो अब कम जगहों पर ही होती है ना ना… आरती होती तो है मगर उस आरती की बात ही कुछ और थी | वो नगाड़ों की धमक, वो घंटियों की आवाज़, वो अगरबत्तियों की महक अब नहीं मिलती हर जगह | अब तो आरती भी इलेक्ट्रॉनिक साज़ों से होती है | नगाड़ों की धमक में खो जाने को दिल करता था और सही मायनों में पूजा का एहसास, ईश्वर के आगे नतमस्तक होने का एहसास और वो ख़ास प्रसाद जिसमें नारियल की चटक, चना-गुड़ और देसी गुलाब की पत्तियाँ होती थी…आह!हा!! क्या आनंद था उन सबमें |

मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू तो सभी को लुभाती है मगर उस गुज़रे ज़माने की मिट्टी की बात ही कुछ और थी… वो मिट्टी में खेलना, लिपे-पुते घर में घुसने पर डांट खाना और हिदायतें मिलती थीं कि पहले बाहर नल पर या बगीचे में लगे पाइप से हाथ-पैर धो कर आओ फिर अन्दर घुसना | अब तो हर पल इन्फेक्शन का डर सताता है और अब मिट्टी भी अपनी वो सोंधी खुशबू खो चुकी है या फिर अब सोंधेपन की उम्र को प्रदूषण ने छोटा कर दिया है |

कहाँ गए वो दिन… जो मेरे अपने थे और जब सब मेरे अपने थे | अब न वो दिन हैं, ना ही वो अपनापन … अब सुरक्षा का ध्यान रखना पड़ता है और तब बारिश में नहाना तो पूरे मोहल्ले का काम था | ज़माना गुज़र गया, शराफ़त ताक में गई, मेरी मिट्टी अब घायल है, मन उद्विग्न है… मोहल्ला पराया है और ज़मीनों पर तेज़ दौड़ती गाड़ियों का हक है … मेरा क्या है … बस मेरी यादें मेरी हैं और कुछ नहीं |
 

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