बचपन मत छीनो
पेपर में आज ये शब्द देखते ही बहुत सारे ख़याल मन में उमड़ने लगे | सत्य ही तो है न कि बच्चों का बचपन लगभग छिन गया है | हम गाँव के बच्चों को मजदूरी करते देखते हैं | जिस उम्र में बच्चों को खेलना कूदना और पढ़ना चाहिए, उस उम्र में वे तगारी उठाये कमठानों पर भारी पत्थरों और मिट्टी का बोझा इधर से उधर ले जा रहे हैं | कुछ बच्चे छोटे मोटे होटलों और ढाबों में बर्तन साफ़ करने या खाना परोसने का काम कर रहे हैं | इन बच्चों के लिए तो मिट्टी में खेलना भी नसीब नहीं हो रहा | जिस उम्र में स्लेट और बरतना पकड़ कर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींची जाती हैं, उस नाजुक उम्र में ये मासूम कितना कुछ झेल रहे हैं | बात सिर्फ गाँवों के बच्चों की नहीं है, शहर के बच्चों का बचपन भी छिन गया है | किताबों के बढ़ते बोझ, टेक्नोलॉजी के विकास, अभिभावकों के अत्यंत बिज़ी टाइम टेबल और एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने सभी बच्चों को एकाकी जीवन जीने को मजबूर कर दिया है जिसके चलते वे अब जानते ही नहीं कि बचपन के खेल क्या होते हैं, मासूमियत तो गायब ही हो गई है | बचपन का वक़्त वो वक़्त होता है जब सभी बच्चे अपने मासूम सवालों से लोगों का मन मोहते हैं, अपनी नादान हरकतों से समझाइश के दौर से गुज़रते हैं और दुनिया के गलत चेहरे से दूर रहते हैं | आज तो सभी बच्चे तन से बच्चे मगर मन से बड़े हो गए हैं जो कि उनके सही विकास में बाधक है |
सर्वप्रथम स्कूल की किताबों का बोझ इतना ज्यादा है कि पढ़ने समझने में बचपन उलझ गया है | किसी और प्रकार के क्रियाकलापों के लिए अवसर ही नहीं मिलता | और जो थोड़ा बहुत समय मिलता है वो टेक्नोलॉजी में खो जाता है | जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल बहुत सटीक बैठती है – ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन , वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी” | शायद जब तक बच्चे कागज़ की नाव के उन चंद मस्ती भरे पलों को समझने लगेंगे, तब तक बहुत समय व्यर्थ हो चुका होगा | ये बचपन के सुनहरे पल यादें बन जाएंगे और यही ग़ज़ल दिल के कोने में एक दर्द की तरह दबी रहेगी | हमें आज भी अपने बचपन के पल याद हैं, मगर इन बच्चों के पास याद करने के लिए क्या है ? यादों के सुंदर पल टेक्नोलॉजी और एकाकीपन से नहीं बनते न ?