कठपुतली नृत्य – बचपन की कुछ अनोखी यादें, जिसे सरकार द्वारा पुनः जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।
Puppet Dance & Culture
ढोल मंजीरों की आवाज के साथ ,ठेठ देशी भाषा के लोक गीतों व कथाओं में वीर गाथाओं का गायन और उनके साथ ही पर्दे पीछे बैठे व्यक्ति के हाथों में बंधी उंगलियों पर नाचती ,अपनी संस्कृति कला और वीरों के इतिहास को अभिव्यक्त करती रंग-बिरंगी कठपुतलियां। इन्टरनेट, मोबाइल, कम्प्यूटर,सोशल मीडिया से दूर हमारा बचपन गांवों और शहरों में लगने वाले मेलों में कठपुतलियों को नाचता देख कैसा आन्नद से भर उठता था।कठपुतली नृत्य – बचपन की कुछ अनोखी यादें, जिसे सरकार द्वारा पुनः जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।
लेकिन आज वो लोक कला जैसे कहीं खो सी गई है।
इस लोक कला को बचाने का बीड़ा अब सरकार ने उठाया है और साधारण लोक कलाकारों को हाशिए पर रख बड़ी कम्पनियों को टेंडर दिये जा रहे हैं उसी क्रम में 2 अक्टूबर, गांधी जयंती पर जवाहर कला केंद्र, जयपुर में कठपुतली नचाने का काम इंडियन क्राफ्ट डिजाइन और बेयरफुट कंपनी को दिया गया, जिसका उदघाटन मुख्यमंत्री ने किया। विश्व स्तर पर भी जागरूकता अभियान के तहत 21 मार्च को कठपुतली दिवस घोषित किया गया है।
खैर इसकी चर्चा से पहले जानते हैं रोचक किस्सा की कैसे कठपुतली का सृजन हुआ।
वैसे तो सबसे पहले ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनि के अष्टाध्याई ग्रंथ में पुतला नाटक के बारे में जानकारी मिली। पुरानी मान्यता तो यह भी है कि भगवान शिव ने मां पार्वती को खुश करने के लिए काठ के पुतले में प्रवेश करके नृत्य किया, सिहासन बत्तीसी मैं राजा विक्रमादित्य के 32 पुतलियों का सिहासन में जड़े होने का उल्लेख भी है। इतिहास की खिड़कियों से उस पार जांकने पर एक बात स्पष्ट दिखती है की कहीं ना कहीं कठपुतलीयों का अविष्कारक और विश्व में इसे पहचान दिलाने वाला देश भारत ही है, कटपुतली केवल एक लोक कला नहीं वरन अपने आप में भारतीय संस्कृति को समेट कर संजोए रखने वाला सुन्दर ऐतिहासिक चित्रण है। हमारी संस्कृति और स्वर्णिम भारतीय इतिहास के प्रचार प्रसार का सशक्त माध्यम है कटपुतली नृत्य कला । भारत में भी चार प्रकार की कठपुतलीयों का मंचन अलग अलग राज्यों में किया जाता है। किन्तु काठ से बनी पुतलियों के मंचन का श्रेय नागौर के भाट समाज को जाता है। तो हुआ यूं कि लगातार सूखे और अकाल कि मार झेल रहे क्षेत्र में भाट समाज के व्यक्तियों ने लकड़ी के मुंह वाली सुन्दर चमकदार वस्त्रों से सुसज्जित गुड़िया बनाकर शाही घरानों और आसपास के नगरों में बेचना शुरू किया। गुड़िया बेचने से पहले गुड़िया को नचाकर ग्राहकों को आकर्षित करते थे। पर गुड़िया बैचने में इतना मुनाफा नहीं होता था । धीरे-धीरे कुछ लोग लोक कथाओं के किरदार बना कर उन काठ की पुतलियों को नचाने लगे ,वीर अमर सिंह जी कि गाथा सबसे ज्यादा गायी जाती थी । इस तमाशे को दिखाकर उनको बेचने से ज्यादा लाभ मिलता था। धीरे-धीरे राजे रजवाड़ों में कठपुतलीयों के नृत्य का मंचन होने लगा। राजा अपने परिवार और राजघरानों की वीर गाथाओं का मंचन करवाते । भाट समुदाय के पास पुरा काल से ही राजाओं की वंशावली रहती थी अतः वे उसका मंचन करने लगे। घर के बड़े अपने बच्चों को यह कला सिखाते रहे और पीढ़ी दर पीढ़ी इसका विकास होता रहा। कठपुतलियां इस समाज को कितनी प्रिय है इसका अनुमान इसी से लगता है कि पुरानी हो जाने पर ये लोग कठपुतलीयों को फैंकते नहीं वरन् जल में प्रवाहित कर देते हैं और मान्यता है कटपुतली जितना दूर तैरती जायेगी उतना शुभ होगा। वो काल कठपुतली कला का स्वर्णिम काल था ।
किन्तु समय किसी के वशीभूत नहीं होता अत: आधुनिकीकरण की भेंट में चढ़ी अन्य लोक कलाओं की भांती कटपुतली कला भी स्वयं को सुरक्षित न रख सकी। जीविका के नये सुदृढ़ संसाधन जुटाने के प्रयास में इस समाज की नयी पीढ़ी ने इस कला को हाशिए पर रखना उचित समझा और वहीं जो लोक कलाकार इस कला में पारंगत हैं उन्हें आगे बढ़ाने के बजाय सरकार ने भी सरकारी संस्थानों में कम्पनियों को टेंडर देकर इन लोक कलाकारों को भुखमरी की स्थिति में ला खड़ा किया है। ये कटपुतली मंचन केवल एक नृत्य नहीं है अपितु कितनी पीढ़ीयो की तपस्या है, अंगुली पर इस प्रकार मंचन करना किरदारों में कहानी के हावभावो को भरना , कहानी का सुन्दर चित्रण, साथ ही गीतों के माध्यम से कथानक को प्रस्तुत करना ,एक विशेष प्रकार कि सी टी का प्रयोग करना जो कटपुतली नृत्य में जान डाल देता है । ये कोई एक दो दिन का नहीं अपितु कई वर्षों की साधना और तपस्या का परिणाम है ।
आज आवश्यकता है इन लोक कलाकारों को पहचान दिलाने की , बड़े सिनेमा हाल में 300-400 रूपये के टिकट खरीदने वाले हम लोग जब कहीं कटपुतली मंचन या कोई भी लोक कला का प्रस्तुतीकरण देखते हैं तो इन कलाकारों के हौसले को बढाने के लिए 10 रूपये भी जेब से नही निकाल पाते ।
लोक कला और इसके कलाकारों को गला घोंट कर मारने में केवल सरकार नहीं अपितु हम लोग भी बराबर के दोषी हैं।
आज के बाद जब भी कहीं किसी लोक कला अथवा कटपुतली नृत्य का मंचन देखें तो केवल मनोरंजन करके आगे न बढ़े बल्कि इनकी कला को उचित सम्मान देकर श्रृद्धा अनुसार सहयोग दें ताकि ये लोक कलाकार आर्थिक कारण से इस कला से विमुख ना हो।
जिस प्रकार हमें हमारी ऐतिहासिक धरोहर सम्भालनी है ठीक उसी प्रकार हमारी लोककलाएं भी हमारी सांस्कृतिक विरासत है , इन्हें भी हमें संजोना है।