श्री एकलिंग जी की पुण्य धरा को कोटि कोटि वंदन है
कहानी जो भुल गया जगत वो बतलाता हुं,
शब्द सुमन इस पावन भुमि को चढाता हुं,
ये भुमि है शौर्य त्याग बलिदानों की,
मिट्टी के मान पर मिटने वालो के अभिमानों की,
शीश कटे और धड़ लडे ऐसे अमर वीरों की,
पन्ना प्रताप मीरा सांगा हाडी रानी और हमीरो की,
जहां बप्पा रावल ने, राज प्रभु एकलिंग के नाम किया,
बनकर दीवान स्वयं यहां, राजधर्म का सारा काम किया,
जहां पद्मिनी अमर हो गयी जल जौहर के अंगारों में,
गोरा बादल से बालक भी कूद पड़े तीर तलवारों में,
जहां कुंभा ने तुर्को के विजय रथ का पहिया मोड़ा था,
८० घाव लगे तन पर फिर भी सांगा ने रणभुमि को नहीं छोड़ा था,
जहां मीरा ने भक्ति में विष का भी था पान किया,
जहां पन्ना ने देश की खातिर चंदन को बलिदान किया,
पहला स्वतंत्रता का दीप जला था भारत की इसी माटी में,
साक्षात महाकाल लडा था प्रताप बन हल्दीघाटी में,
जहां चेतक जैसा जीव भी राष्ट्र की खातिर अड गया,
लेकर प्रताप को अकबर के सेनानायक पर चढ़ गया,
झुक गई थी जब तलवारें दिल्ली के दरबारों में,
तब मेवाड़ अटल खड़ा था तोपों के अंगारों पे,
गीता के उपदेश वाला मुख तुर्की देहलीज़ पर थुक नहीं सकता,
शीश झुका जो एकलिंग के आगे, वो कहीं और झुक नहीं सकता,
भय मृत्यु का नहीं हमको रणचंडी के हम पुजारी हैं,
हमारा एक एक वीर लाखों तुर्को पर भारी है,
धिक्कार उन राजवंशों पर जो तुर्की चरणों में शीश धरते हैं,
मृत्यु कायर की होती है, हम तो वीरगति को वरते हैं,
किया रण महा भीषण, सार्थक अपना नाम किया,
अकबर के अहंकार का राणा ने काम तमाम किया,
शरणागत वत्सल नारायण के भक्तों को शरण दिया,
एक लाख शीश कटने पर भी अभय का वचन दिया,
महाकाल का साथ यहां पूरा दिया भवानी ने,
रण जाते पति को अपना शीश दिया था हाडी रानी ने,
आऐ थे स्वयं जगन्नाथ यहां, जगदीश रुप धरकर,
प्रकटे थे द्वारिकानाथ, चार भुजा जी रुप धरकर,
मेवाड़ की केसर पताका कभी झुकी नहीं,
आजादी की आंधी यहां कभी रुकी नहीं,
नारी नारी यहां सिंहनी जैसी, नर यहां माटी के नंदन है,
श्री एकलिंग जी की पुण्य धरा को कोटि कोटि वंदन है।
– दक्षेश पानेरी