मेवाड़ की स्वर्णिम धरा को क्या से क्या बना दिया?
मेवाड़ की स्वर्णिम धरा को क्या से क्या बना दिया?
बचपन से ही मैं अपने मेवाड़ की धरा के अनेकों वीरों की कहानियां सुनते बड़ी हुई ,लगभग 25 साल पहले जब छोटी बच्ची थी मां-पापा के साथ बाईक पर बैठ बीसियों बार उदयपुर से राजसमंद ननिहाल का सफर तय किया। बीच में पड़ते चीरवा घाटे की चक्कर घिन्नी बड़ी मजेदार लगती थी। मेवाड़ नाथ एकलिंग महादेव के दर्शन और वहां मिलने वाले मिर्ची बड़े ,आलू बड़े भी हमारे सफर का सुन्दर ठहराव था। महादेव के दर्शन के बाद मां बोलती नाश्ता पैक करवालो आगे जाकर खायेंगे। आगे कहीं अरावली से आती झर-झर बहती पानी की धारा के आसपास किसी पेड़ की घनी छाया में बैठ जाते।
अहा! वो स्वर्णिम बचपन के दिन।
मिर्ची बड़ा खाते-खाते मां-पापा से उन जंगलों की कहानियां सुनती और अपने विचारों में खो जाती , पापा बताते हैं कि उनके बचपन में यह बियाबान जंगल था लेकिन अब इतना डरावना नहीं रह गया। अपने गांव जाते हुए केवड़े की नाल में भी यही दृश्य परिलक्षित होता और मैं सोच में पड़ जाती कि कैसे राणा इन जंगलों को पार करते होंगे, कैसे हल्दीघाटी का युद्ध हुआ होगा, कैसे इन जंगलों में आदिवासियों ने वास किया होगा, कैसे जंगलों के रास्ते महाराणा एकलिंग महादेव जी के रोज दर्शन करने आते होंगे और ऐसी जाने कितनी ही कहानियां मेरे मन मस्तिष्क के कल्पना से चित्रित हो जाती और मैं खो जाती इतिहास में कहीं।
आज भी उदयपुर से राजसमंद का वही सफर है बस बाइक की जगह कार ने ले ली, चीरवा घाटे से जाने के बजाय अब टनल का इस्तेमाल होता है आज भी एकलिंग जी महादेव के दर्शन करते हैं आज भी मिर्ची बड़ा लेते हैं अब मैं मां हूं मेरे पास कहानियां है अपने बच्चों को सुनाने के लिए लेकिन………..!
ओह! वो पेड़ों के झुरमुट कहां है जिनके नीचे बैठकर मैं अपने बच्चों को महाराणा की शौर्य गाथाएं सुनाऊं , अब तो केवल और केवल अरावली के नंगे पहाड़ हैं , तपती धूप है,जगह-जगह मार्बल माइंस है, और हर तरफ मार्बल के अपशिष्ट फैले हैं जो किसी सफेद बर्फ की चादर से लगते हैं आश्चर्य है लोग आजकल वहां प्रि वेंडिंग शूट के लिए अपनी तस्वीरें खिंचवाते हैं। मेरी आत्मा कुढ़ जाती है जब मैं देखती हूं प्रकृति की हरी चादर को फाड़कर मार्बल स्लरी का सफेद बिछोना हम उदयपुर वालों को कितना भा रहा है। हमें शर्म नहीं आती कि हमारे उदयपुर को हमने कुछ ही सालों में क्या से क्या बना दिया। हम विचार नहीं करते कि हम अपने उदयपुर की सुंदरता खो रहे हैं। हमें जरा सी भी गिन्न नहीं आती कि हम कितने मूर्ख हैं आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति की सुंदरता को खत्म करते जा रहे हैं। चारों तरफ अरावली को खनन करके खोखला करते जा रहे हैं। बेशर्मी से पेड़ों को काट रहे हैं मार्बल व्यवसाय को बढ़ावा दे रहे हैं।
और यह सब बात तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं मैं आप सब से एक प्रश्न पूछती हूं अपने जीवन में कितने पेड़ लगाए?
अपने बच्चों को आपने क्या सिखाया , क्या आपके बच्चे प्रकृति से जुड़े हुए हैं। या हम फिर एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जिसे प्रकृति से कोई मतलब नहीं। ज्यादा दूर जाने की जरूरत भी नहीं कभी फतेह सागर की पाल पर बैठकर सामने फैले अरावली को देखना नंगे पहाड़ देखकर सिर शर्म से न झुक जाए तो आपको उदयपुरवासी कहलाने का कोई हक नहीं। हमारा शहर ऐसा तो नहीं था हमारे बड़ों ने हमें ऐसा शहर तो नहीं दिया था फिर हमने इसे इतना बदसूरत कैसे होने दिया।
खैर अभी अफसोस करने का नहीं, कुछ कर दिखाने का समय है।
अपने आसपास सड़कों के किनारों पर पेड़ लगायें। केवल प्रकृति से लेने का विचार ना करें प्रकृति को देने का भी सोचें। घर में जो फल लाते हैं उनके बीजों को संग्रहित करें। जब भी कभी शहर के आसपास घूमने जाए खासकर बारिश के मौसम में तो उन बीजों को बिखेर दें आपके बिखरे 100 बीजों से भी अगर एक वृक्ष बन गया तो आपका कार्य सफल हो जाएगा। अपने घर के गमलों में भी बीज बोयें, उनकी छोटी पौध तैयार करें उसके बाद उस पौध को कहीं भी आसपास लगा दें और उन पौधों के पेड़ बनने तक ख्याल रखें। हो सके तो यह काम अपने घर के बच्चों से करवाएं ताकि वह प्रकृति से जुड़ सकें। यहां मैं अपनी एक उपलब्धि आप सभी के सामने रखना चाहूंगी मैं और मेरा परिवार अभी तक ऐसे 15 पेड़ लगा चुके हैं और अभी भी मेरे घर में कई सारे गमलों में कई सारी नई पौध तैयार हो रही है।
केवल बड़े-बड़े भाषण देने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता अथक मेहनत और दृढ़ निश्चय ही उन्नति के नए द्वार खोलते हैं।