जानिए मुखौटे का इतिहास – कैसे आज भी इसका उपयोग लगातार किया जा रहा है?
मुखौटा और मानवीय इतिहास का संबंध बहुत पुराना है कहते हैं सबसे पुराना और सबसे पहला मुखोटे 9000 साल पहले बनाया गया था। नाट्य मंच से जुड़े किसी भी नाटक को करने के लिए हमारे पूरे भारतवर्ष में भी कई प्रकार के मुखौटों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। मंदिरों में होने वाले कई नाटक और नृत्यों में मुखोटे सुंदर लगते हैं जब वह किसी नाटक के पात्रों को जीवन्त करने के लिए पहने जाते हैं। मुखोटे सुंदर लगते हैं जब वह घरों में सजावट में इस्तेमाल किए जाते हैं। लेकिन असली जीवन में , असली चेहरों पर लगे ढेरों मुखोटे का क्या ?
हर व्यक्ति ने खुद को एक नहीं , बल्कि कई मुखोटे से छिपा रखा है। बेईमान इंसान ने ईमानदारी का मुखौटा पहन रखा है। झूठे इंसान ने सच्चे इंसान का मुखौटा पहन रखा है ।धोखेबाज लोग सज्जनता का मुखौटा पहन के घूमते हैं। हर इंसान अपने मुखौटों की मदद से दूसरे इंसान को बेवकूफ बनाने में लगा है। दुनिया में हर जगह , हर तरफ मुखोटे पहने इंसानों की भीड़ चल रही है , कोई भी व्यक्ति बिना मुखोटे के नहीं दिखता ।हमारे अपने , हमारे दोस्त, रिश्तेदार, सबके पास मुखोटे हैं शायद हमारे पास भी !
हम सब मुखौटों के पीछे अपनी असलियत छुपाए फिरते हैं। हम सब मुखौटों के इतने आदि हो चुके हैं की मुखौटा हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। यहां बात केवल एक मुखोटे की नहीं है , एक इंसान अपने चेहरे पर कई मुखोटे लिए घूमता है। हर इंसान के लिए उसका मुखौटा अलग है ,हर रिश्ते के लिए उसका मुखौटा अलग है। शायद उसके खुद के सिवा कोई भी नहीं जानता कि उसका असली चेहरा क्या है। कई बार दुनिया को महात्मा और सामाज के उन्नत , जागरुक नागरिक का मुखौटा पहने दिखने वाला इंसान अपने परिवार के सामने एक बहुत ही संकीर्ण विचारधारा और संकुचित मानसिकता का व्यक्ति होता है।
वैसे चोर के चेहरे पर साहुकार का मुखौटा आजकल आम बात है। इसी मुखौटे की मदद से लोग अपनों को धोखा दे जाते हैं चाहे वह धोखा पैसों का हो, चाहे जमीन जायदाद का लेकिन धन संपत्ति के लालच में आजकल यह मुखौटा बहुत बिक रहा है। एक और मुखौटा आजकल बहुत चलन में है करो एक दिखाओ अनेक! लोग किसी की एक रूपये की मदद करके अपने सोशल मीडिया पर इस तरह जाहिर करते हैं की जैसे लाखों की मदद की हो। सभी अपने आप को महान बनाने में और महात्मा बताने में लगे हैं। अपनी कमियां छुपाने के लिए लगाए गए मुखोटे अब हमारी आदत बन चुके हैं। लेकिन हम क्यों भूल जाते हैं की उस परमपिता परमेश्वर के सामने हमें बिना मुखोटे के ही जाना है।
क्या हम उन मासूम बच्चों जैसे नहीं हो सकते जिनकी हंसी, जिनका रोना ,जिनका आश्चर्य, जिनका खुश होना, जिनका नाचना, जिनका गाना, सब कुछ सच होता है बिना किसी मुखोटे के! काश हम सब अपने मुखोटे उतार फेंके और जीयें उन बच्चों की सी जिंदगी।