भारतीय लोक कला मंडल की स्थापना 1952 में विश्वविख्यात लोककलाविद पदमश्री(स्व.) श्री देवीलाल सामर द्वारा की गई | लोक कला के संरक्षण, उत्थान, विकास और प्रचार प्रसार हेतु इस कला मंडल को स्थापित कर विश्व में विशिष्ट संस्कृति की पहचान लिए हमारा शहर उदयपुर चहुँ ओर ख्याति प्राप्त कर चुका है |
लोक कला मंडल में जीवन संस्कृति को परिभाषित करने वाली अनेकों चीज़ों को देखा जा सकता है | इस कला मंडल का मुख्य उद्देश्य कुछ इस प्रकार से है :
• लोक गीतों, लोक नृत्यों और लोक कलाओं को पहचान दिलाना और उन्हें विकसित करना
• उपरोक्त दिशाओं में शोध को बढ़ावा देना
• पारंपरिक लोक कलाओं को आधुनिक परिवेश के अनुसार विकसित करना
• भारत और विदेशों में कठपुतली, लोक नृत्य और गीतों के कार्यक्रम आयोजित करना
• लोक कथाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रशिक्षण देना
• लोक कलाकारों को प्रोत्साहन देना
• सम्बंधित विषयों के कार्यक्रम आयोजित करना
भारतीय लोक कला मंडल लोक कलाओं को ना सिर्फ पहचान दिलाना चाहता है बल्कि छुपी हुई कलाओं को भी बाहर लाने का प्रयास करता है जिसके लिए अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है | Audiovisual तरीकों के माध्यम से एवं संग्रह के माध्यम से जनता को लोक परम्पराओं की जानकारी उपलब्ध कराई जाती रही है | विभिन्न कलाओं पर कई किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं |
यहाँ अनेकों लोक नृत्यों का मंचन भी होता है जैसी घूमर, भवाई , डाकिया, तेरह ताल, कालबेलिया आदि | कठपुतली बनाना और संचालन करना भी एक बहुत महत्वपूर्ण लोक कला है, अतः इस बारे में भी प्रशिक्षण दिया जाता है | नाटकों का मंचन लोक कलाओं, रिवाजों, कथाओं एवं भ्रांतियों को उजागर करने के लिए किया जाता है | कठपुतली बनाने की कला लगभग लुप्त हो चली थी, इस कला के माध्यम से कई कथाएँ आम जनता तक पहुंचाई गई हैं इसलिए इस कला को भी दुबारा विकसित करने के इरादे से लोक कला मंडल ने अनेकों कदम उठाए हैं |
हर साल 22 और 23 फरवरी को दो दिवसीय मेले का आयोजन स्थापना दिवस मनाने के लिए किया जाता है | इस मेले में राजस्थान के कलाकारों के अलावा समीप के राज्यों के कलाकार भी प्रस्तुतियां देते हैं | इस मेले का मुख्य उद्देश्य उभरते कलाकारों को एक मंच देकर उनकी प्रतिभा को उभारना भी है |