October 22, 2024
Knowledge

भरपाई – सिद्धार्थ की कलम से

कल रात की मूसलाधार बारिश के बाद सुबह सूर्य देव के दर्शन बड़ा सुखद अहसास दे रहे थे. बेमौसम की बारिश, उस पर से ओलों की बौछार, दोनों से एक ठंडी हवा की लहर चल रही थी, जो अप्रेल के महीने में भी धुप को सुहावना बना रही थी. खुले आँगन में, गीले फर्श पर पड़ रही सूरज की किरणें बच्चों को अपनी और आकर्षित कर रही थी. चिड़ियाओं के चहचहाने की आवाज़, बच्चों की किलकारियां, टिन की छत से नीचे रखी बाल्टी में गिरती पानी की बूंदों की टप-टप दिखाने को तो माहौल को बड़ा खुशनुमा बना रही थीं, पर रामदीन के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. किसी घोर अनिष्ट की आशंका में उसके पैर घर से निकल खेतों की तरफ जाने जितनी ताकत भी नहीं जुटा पा रहे थे. वो और उसकी अर्धांगिनी, सुकना, कमरे के एक कौने में बैठे एक दूसरे से आँख चुराने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे थे. दोनों बराबर डरे हुए, दोनों भीगी आँखों को अपनी पलकों में छुपाए हुए.

अभी दो दिन ही तो हुए थे जब दोनों ने अपनी शादी की तीसरी सालगिरह मनाई थी, उस किशन की ज़िद में. ना जाने क्या क्या नए स्वांग सीख आया था किशन शहर जा कर, वरना शादी की सालगिरह भी कभी कोई मनाता होगा! पर किशन को तो जैसा भूत चढ़ा था, क्या ना करवाया उसने; हलवा-पूरी, रायता…यूँ कहो की ५६ भोग ही परोस दिए, उसकी ज़िद से हारकर, रामदीन ने. पर अंदर से रामदीन भी कौनसा नाराज़ था! ये सब करते हुए उसे भी कम अच्छा न लग रहा था. इस बार की अपनी मेहनत से जो उसने खेतों को सींचा था उसपर पूरा यकीन था उसे. उसपर से अपने लल्ला को पहली बार चलते देखने की ख़ुशी भी तो थी, सो उसने भी जश्न मनाने से कतई गुरेज़ न किया. पर नियति को शायद कुछ और ही मंज़ूर था!

बड़ी देर तक चुप रहने के बाद आखिर सुकना ने चुप्पी तोड़ी. “एक नज़र खेतों की तरफ डाल तो आओ, शायद रात हवा ने रुख ही बदल लिया हो. कोई चमत्कार भी तो सकता है, मैंने अच्छी फसल के लिए आशापूर्णा के व्रत रखे थे, माता को चुनर चढाने की भी तो बोली थी. फिर ईश्वर कोई इतना कठोर थोड़े ही है जो ऐसे रातों-रात हमारा सब कुछ उजाड़ दे.   यूँ घर में बैठे रहने से भी कौनसी गिरी फसल उठ खड़ी होगी? उठो, चाय बना लाती हूँ, उकडू बैठे शरीर अकड़ गया है, थोड़ी गर्मी से आराम मिलेगा.” रामदीन उठा, आंसू पोंछे और मुंह पर पानी के छींटे मार चल दिया भारी कदमों से, खेतों की तरफ. रास्ते में जितने भी मिले उनमे से कोई खुश न दिखा. बनिया, ग्वाला, पिंजारा, बढ़ई और किसान, सब दुखी, सब मायूस. किसी चमत्कार की आशा तो इतने मुरझाये चेहरे देख कर ही हवा हो गयी थी. कहते हैं कि जब सब दुखी हों तो दर्द सहने की ताकत बढ़ जाती है. कदम थोड़े तेज़ हुए और रामदीन अपने खेतों की मुंडेर जा पहुंचा. कल तक का खेत मैदान बना उसके सामने था. फसल ज़मीन पर आड़ी पड़ी थी. उसका आज, उसका कल, दोनों आँखों के सामने बर्बाद हुए पड़े थे. सब कुछ खत्म, सब कुछ तबाह. बीज, खाद के लिए जो क़र्ज़ लिया था उसकी गणित अपने-आप ही दिमाग में चलने लगी. वर्तमान की तबाही से उसको भविष्य का अनिष्ट नज़र आने लगा. आँखों से आंसू बह निकले, होठ लिज़लिज़ाने लगे; मन हो रहा था की दहाड़ मार के रो ले, पर बस इतना सा बोल पाया, “हे प्रभु, मुझसे कोई पाप हुआ होगा जो तूने ये सज़ा दी, पर लल्ला पर तो तरस खाता, उस अबोध ने तो अब तक कुछ गलत ना किया था!” तबाह खेत के दूर के छोर पर सिर्फ एक दरख़्त ही था जो अब भी खड़ा था, सारी तबाही का मूक गवाह बने.

रामदीन वापस लौट चला घर की तरफ, एकदम भावशून्य, जैसे हाड़-मांस का एक ढांचा खुद ही चला जा रहा हो. “तनिक रुको तो रामदीन भैया, बतिया लो ज़रा, और कुछ न सही मन ही हल्का होगा” किशन की आवाज़ से रामदीन के पैर ठिठक कर रुक गए. भावशून्य मन शरीर पर नियंत्रण नहीं रखता, शरीर तो किसी सम्मोहन के वश में हो जाता है जैसे. किशन की आवाज़ सुन रामदीन बिना कुछ बोले-समझे जहां था वहीँ रुक गया. रामआसरे की चाय की रेड़ी पर, टिन के उलटे रखे कनस्तर पर दोनों बैठ गए. आंसू अभी रुके न थे. रामदीन की मनःस्थिति समझते किशन को देर ना लगी. चाय का कुल्हड़ रामदीन को पकड़ाते हुए किशन ने धीमी लेकिन सुदृढ़ आवाज़ में कहा “फसल तो चौपट हो गई है भैया, अब गुज़र-बसर का क्या करोगे? तनिक सावचेती से सरकारी मुआवज़ा तो ले ही लेना, सुना सरकार सरपंच को बोली है ई विपदा का मोल लगाने को. सरपंच जी लगे हैं नुकसान का हिसाब लगाने में.”

“तबाही का मुआवज़ा!!! ऐसा भी होता है? इसका मतलब का ई हुआ की सरकार हमको हमारी मेहनत, फसल, भविष्य का मोल चुकाएगी? जब किशन कहता है तो ऐसा होता ही होगा. फिर सरपंच जी भी अपने गाँव ही के हैं, सो जो बन पड़ेगा वो करने में कसर तो नहीं छोड़ेंगे. सुना भी तो है कि वो जो वोट पड़े थे उनसे जीत कोई शहर की एक बड़ी सी, आलिशान पंचायत में बैठ हमारी ख़ुशी और हमारे भविष्य के फैसले लेता है; शायद उसी ने मुआवज़े की कही होगी सरपंच जी को! चलो जो हो, भगवान ने जब एक रास्ता बंद किया है तो दूसरा तो खोला ही होगा; वो ऐसा ही तो करता है, स्कूल के मास्टर जी भी तो यही कहते हैं.”

अंधड़ से उजाड़ हुए गाँव में अचानक जैसे कोई मेला सा लग गया था. दिन रात बड़ी-बड़ी मोटरें, बड़े-बड़े साहब लोग, सफ़ेद खादी पहने नेता, सब आने लगे थे. खेत नापे जा रहे थे, कलम से नुकसान का हिसाब लगाया जा रहा था, सरकारी खर्च पर दाल-रोटी तक मिल रही थी. रामदीन ही क्या, सभी को अच्छे दिन की आहट सुनाई दे रही थी. गणित लगी, हिसाब बना और चहरे पर मुस्कान लिए नेता जी ने रामदीन के कंधे पर हाथ रखा और बोले, “सब अच्छा होगा!”

सुबह से ही चौपाल पर गहमा-गहमी थी. किशन कहीं से अखबार उठा लाया था, उसी को बांच सब को सुना रहा था. कहानी थी या सच ये तो पता नहीं, पर लिखा था कि सरकार ने नुकसान का भरपूर मुआवज़ा हर किसान को दिया और अब कोई दुखी नहीं है. रामदीन के गाँव का भी नाम था, पर यहाँ तो ऐसा कुछ न मिला था. सरपंच जी भी तो शहर जाने कि कह कर निकले थे, पर अब तक लौट के न आये थे. फिर मुआवज़े की रकम गयी कहाँ? कहीं कोई डाक-बाबू तो नहीं डकार गया सब या फिर गलत पते पर तो न जा पहुंची पाती कहीं? क्या करें, किसको पूछें? किशन ही क्यों पता नहीं करता? पर वो क्या करेगा, उसकी आँखों में तो खुद ही आंसू झड़ रहे थे! काला सच फूट पड़ा उसकी ज़बान से…”खा गए सब! सरकारी ख़ज़ाने से निकला रूपया हम तक नहीं पहुंचा; नेता, अफसर, पंच, सरपंच के बीच ही खो गया. हम कल भी कंगाल थे, आज भी कंगाल हैं और शायद कंगाल ही मरेंगे. कल का आबाद गाँव कब श्मशान बन जाएगा पता नहीं”

रामदीन जड़ हो गया, खड़ी लाश जैसा. जाने किस सोच में खेतों की तरफ चल पड़ा. पास ही खड़ी रो रही सुकना और बिलख रहे लल्ला की तरफ भी उसने नज़र उठा कर तक नहीं देखा. आँखों के सामने खेत था, कोरा मैदान बना, और दूर वही दरख़्त.

रात बीत गयी, कुछ आँखों के आंसू सूखे और कुछ अभी तक बह रहे थे. पर रामदीन अब तक घर न लौटा था. सुकना बहुत घबराई हुई किशन के पास गयी. “तुमरे भैया कल शाम ही से घर नहीं लौटे हैं. बड़ी चिंता हो रही है! रात के गुप्प अँधेरे में, लल्ला को लिए, खोजने जाने जितनी हिम्मत न जुटा सके, सो भोर होने का इंतज़ार भर ही कर सके.” किशन बिना देर किये, तुरंत ही भागा खेतों की तरफ. कदम लड़खड़ा गए, दिमाग घूमने लगा और वो धड़ाम से गिर पड़ा; दूर के छोर पर रामदीन नज़र आ गया….उसी दरख़्त पर गर्दन से झूलता हुआ!

पूरा गाँव रामदीन अंतिम यात्रा में शामिल हुआ, कंधे बदलते जा रहे थे और पैर चलते जा रहे थे. अचानक नेपथ्य से एक और घर से रोने-चीखने की आवाज़ आई. कुछ लोग बँट गए! शाम तक गाँव फिर इकठ्ठा था, पर श्मशान में चिताएं अलग अलग!! आज फिर मोटरें, नेता, टीवी, अखबार, सब गाँव में थे.

Sidharth Dashora

self-pic

Related Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *