मिट्टी का चूल्हा
क्या आपने कभी चूल्हे पर बना खाना खाया है ? ज़रूर खाया होगा | पहले घरों में कुकिंग गैस के आगमन के बाद भी मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाया जाता था | गैस तो तब काम में लेते थे जब घर में आए मेहमानों के लिए चाय बनानी होती थी | यहाँ तक कि अगर किसी के घर में कोई पेट दर्द या पेट की गैस से परेशान होता था तो घर के बड़े बुज़ुर्ग यह भी कहते थे कि गैस पर बना खाना खाते हो इसलिए तकलीफ होती है | हंसी भी आती थी | चूल्हे पर बने खाने का स्वाद ही अलग होता था | रोटी जब अंगारों पर सिकती थी तो उसकी महक से ही भूख लग जाती थी | और तो और कंडों पर बनी बाटी का स्वाद आज तंदूर में बनी बाटी से लाख गुना अच्छा होता था |
मेरी यादों के हिस्से में बहुत कुछ पल ऐसे हैं | दादी सुबह सुबह रोज़ चूल्हे को लीपती थी, रोज़ नया सा दिखता था घर का चूल्हा | सही मायनों में चौका-चूल्हा यही होता था | चूल्हे के बहाने लोग समय पर साथ बैठकर खाना खाते थे | शामिल परिवारों में यह अत्यंत सुखद अनुभूति थी | सर्दी के दिनों में सबसे ज्यादा मजा आता था, चूल्हे और सिगड़ी की गर्माहट सब को भाती थी | खाना खाते समय गर्म गर्म रोटियाँ और चूल्हे के अंगारों पर भगोने में रखी गर्म दाल का आनंद आज मिलता ही नहीं |
अलग ही खुशबू होती थी उस समय के तड़के की | ये मजा लेने के लिए अब हम शहरी लोग गाँवों का रुख करते हैं | अंगारों में भुने हुए हरे चने की डालियाँ और नया ताज़ा हरा गेंहूं जिसे उम्बी कहते हैं (शायद कोई और भी नाम हो) पर मुझे तो यही याद है, इन सबका आनंद अब कहाँ मिलता है? तब किसी की सेहत पर बीमारियों ने इस कदर डाका नहीं डाला था, क्योंकि चौके-चूल्हे का समय सांझ का होता था और सभी लोग समय पर खाना खाकर चहलकदमी करने भी निकलते थे जिससे खाना पचता था |
जिस समय चूल्हे को लीपा जाता था, उसकी सोंधी सोंधी महक बहुत ही आकर्षक होती थी | आज तो ऐसी महक के लिए बस बारिश का इंतज़ार किया जाता है | क्या करें, समय के परिवर्तन और विकास के चलते बहुत कुछ लगभग ख़त्म हो गया है | काश ऐसा हो कि हम फिर से पुराने युग के इस चलन की ओर लौट सकें और शामिल परिवारों में रहकर सुख-दुःख बाँट सकें |