Life Style

Dr. Arvinder Singh, the CEO of Arth Group and Double World Record Holder, has been bestowed with the “Inspiring Business Leader Award” in Delhi. Renowned actress Jacqueline Fernandes and senior leader Manjinder Singh Sirsa gave him this esteemed award. This award was given to Dr. Singh in recognition of his exceptional leadership abilities, business acumen, and outstanding service to the healthcare industry. Notably, he was also recently honored in the British Parliament as a distinguished figure in the realms of cosmetic dermatology and business

Dr. Arvinder Singh has made significant advancements in dermatology, diagnostics, and medical education. He has pioneered new dimensions in medical education by establishing the International Medical Board for Business Skills and the International Medical Board for Cosmetic Dermatologists in London, UK. Dr. Singh emphasized that these boards will facilitate online classroom teaching, aiming to train healthcare professionals and individuals in the medical field on contemporary and modern topics such as finance, branding, medical law, and artificial intelligence. This form of training is intended to improve medical professionals’ abilities and allow them to offer patients advanced services at competitive prices.

Entertainment Life Style

अजीबोगरीब शौक 

कुछ लोगों में एक अजीब पागलपन होता है | ऐसा जिसे हम सामान्य लोग सोच भी नहीं सकते | किसी को ऊटपटांग चीज़ें खाने का शौक होता, किसी को जोकरों जैसे कपड़े पहनने का | पता नहीं दुनिया में क्या क्या होता है !! शायद ये किसी बीमारी से ग्रस्त होते हैं | बिआन्का नाम की एक महिला को मिट्टी के बर्तन खाने का चस्का लगा | जब इससे भी उसको चैन नहीं पड़ा तो उसने सिगरेट की राख खानी शुरू कर दी|

 

क्रिस्टन को चौक खाना पसंद है | पुराने ज़माने में किसी देश में एक सजा के तौर पर स्कूल के बच्चों को चौक खाने को कहा जाता था (शायद स्कूल वाले भी मानसिक रोगी थे) | अब क्रिस्टन ने अपनी बहनों को भी चौक खाने की आदत डाल दी है (लो कर लो बात!!!)

जोश को कांच खाने का शौक है | सर्कस वाले को कांच खाते देखना भी कंपकंपा देता था, मगर यह आदमी तो अपने घर में खाने के समय कांच खाता है | उसका कहना है कि कांच खाना एक जबरदस्त कड़क कैंडी खाने के समान है |

चर्मिस्सा को साफ़ सुथरे सुगन्धित टिश्यु की महक इतनी अच्छी लगती है कि उसने वही खाना शुरू कर दिया | उसका कहना है कि उसे टिश्यु का टेस्ट मस्त लगता है |क्रिस्टल को लिस्ट्रीन माउथवाश पीना अच्छा लगता है(उफ्फ) |एक आदमी ऐसा भी है जिसे गुड़ियों वाले कपड़े पहनना पसंद है(बार्बी के कपड़े पहनने के लिए तो फिर बहुत समय जिम में लगाता होगा)|

एक महिला है जेस्सी जिसे अपने सारे कपड़ों में फर लगाना पसंद है | उसके घर की हर चीज़ में फर लगा हुआ है | यहाँ तक कि टॉयलेट सीट के लिए भी उसने फर का कवर बना रखा है |एक कपल का पागलपन ऐसा कि कभी कभी घर से बाहर निकलते समय पत्नी अपने पति की शर्ट पैंट पहनती है और पति महाशय पत्नी की स्कर्ट और टॉप |

 

Life Style

बचपन मत छीनो

पेपर में आज ये शब्द देखते ही बहुत सारे ख़याल मन में उमड़ने लगे | सत्य ही तो है न कि बच्चों का बचपन लगभग छिन गया है | हम गाँव के बच्चों को मजदूरी करते देखते हैं | जिस उम्र में बच्चों को खेलना कूदना और पढ़ना चाहिए, उस उम्र में वे तगारी उठाये कमठानों पर भारी पत्थरों और मिट्टी का बोझा इधर से उधर ले जा रहे हैं | कुछ बच्चे छोटे मोटे होटलों और ढाबों में बर्तन साफ़ करने या खाना परोसने का काम कर रहे हैं | इन बच्चों के लिए तो मिट्टी में खेलना भी नसीब नहीं हो रहा | जिस उम्र में स्लेट और बरतना पकड़ कर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींची जाती हैं, उस नाजुक उम्र में ये मासूम कितना कुछ झेल रहे हैं |

बात सिर्फ गाँवों के बच्चों की नहीं है, शहर के बच्चों का बचपन भी छिन गया है | किताबों के बढ़ते बोझ, टेक्नोलॉजी के विकास, अभिभावकों के अत्यंत बिज़ी टाइम टेबल और एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने सभी बच्चों को एकाकी जीवन जीने को मजबूर कर दिया है जिसके चलते वे अब जानते ही नहीं कि बचपन के खेल क्या होते हैं, मासूमियत तो गायब ही हो गई है | बचपन का वक़्त वो वक़्त होता है जब सभी बच्चे अपने मासूम सवालों से लोगों का मन मोहते हैं, अपनी नादान हरकतों से समझाइश के दौर से गुज़रते हैं और दुनिया के गलत चेहरे से दूर रहते हैं | आज तो सभी बच्चे तन से बच्चे मगर मन से बड़े हो गए हैं जो कि उनके सही विकास में बाधक है | 

सर्वप्रथम स्कूल की किताबों का बोझ इतना ज्यादा है कि पढ़ने समझने में बचपन उलझ गया है | किसी और प्रकार के क्रियाकलापों के लिए अवसर ही नहीं मिलता | और जो थोड़ा बहुत समय मिलता है वो टेक्नोलॉजी में खो जाता है | जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल बहुत सटीक बैठती है – ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन , वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी” | शायद जब तक बच्चे कागज़ की नाव के उन चंद मस्ती भरे पलों को समझने लगेंगे, तब तक बहुत समय व्यर्थ हो चुका होगा | ये बचपन के सुनहरे पल यादें बन जाएंगे और यही ग़ज़ल दिल के कोने में एक दर्द की तरह दबी रहेगी | हमें आज भी अपने बचपन के पल याद हैं, मगर इन बच्चों के पास याद करने के लिए क्या है ? यादों के सुंदर पल टेक्नोलॉजी और एकाकीपन से नहीं बनते न ?

ये मेरे विचार हैं | आप भी अपने विचार व्यक्त कीजिये |

Life Style

क्या आपने कभी चूल्हे पर बना खाना खाया है ? ज़रूर खाया होगा | पहले घरों में कुकिंग गैस के आगमन के बाद भी मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाया जाता था | गैस तो तब काम में लेते थे जब घर में आए मेहमानों के लिए चाय बनानी होती थी | यहाँ तक कि अगर किसी के घर में कोई पेट दर्द या पेट की गैस से परेशान होता था तो घर के बड़े बुज़ुर्ग यह भी कहते थे कि गैस पर बना खाना खाते हो इसलिए तकलीफ होती है | हंसी भी आती थी | चूल्हे पर बने खाने का स्वाद ही अलग होता था | रोटी जब अंगारों पर सिकती थी तो उसकी महक से ही भूख लग जाती थी | और तो और कंडों पर बनी बाटी का स्वाद आज तंदूर में बनी बाटी से लाख गुना अच्छा होता था | 

मेरी यादों के हिस्से में बहुत कुछ पल ऐसे हैं | दादी सुबह सुबह रोज़ चूल्हे को लीपती थी, रोज़ नया सा दिखता था घर का चूल्हा | सही मायनों में चौका-चूल्हा यही होता था | चूल्हे के बहाने लोग समय पर साथ बैठकर खाना खाते थे | शामिल परिवारों में यह अत्यंत सुखद अनुभूति थी | सर्दी के दिनों में सबसे ज्यादा मजा आता था, चूल्हे और सिगड़ी की गर्माहट सब को भाती थी | खाना खाते समय गर्म गर्म रोटियाँ और चूल्हे के अंगारों पर भगोने में रखी गर्म दाल का आनंद आज मिलता ही नहीं |

अलग ही खुशबू होती थी उस समय के तड़के की | ये मजा लेने के लिए अब हम शहरी लोग गाँवों का रुख करते हैं | अंगारों में भुने हुए हरे चने की डालियाँ और नया ताज़ा हरा गेंहूं जिसे उम्बी कहते हैं (शायद कोई और भी नाम हो) पर मुझे तो यही याद है, इन सबका आनंद अब कहाँ मिलता है? तब किसी की सेहत पर बीमारियों ने इस कदर डाका नहीं डाला था, क्योंकि चौके-चूल्हे का समय सांझ का होता था और सभी लोग समय पर खाना खाकर चहलकदमी करने भी निकलते थे जिससे खाना पचता था | 

जिस समय चूल्हे को लीपा जाता था, उसकी सोंधी सोंधी महक बहुत ही आकर्षक होती थी | आज तो ऐसी महक के लिए बस बारिश का इंतज़ार किया जाता है | क्या करें, समय के परिवर्तन और विकास के चलते बहुत कुछ लगभग ख़त्म हो गया है | काश ऐसा हो कि हम फिर से पुराने युग के इस चलन की ओर लौट सकें और शामिल परिवारों में रहकर सुख-दुःख बाँट सकें | 

 

City Life Style

कहाँ गए वो दिन…कुछ यादें

वो मेरा बचपन था | आज भी जब गाँव के लोगों को सर पर लकड़ी तोकते देखती हूँ, तो याद आता है कि ऐसी लकड़ियों की तलाश हमको भी रहती थी जब हम बच्चे थे | अच्छी लकड़ी ढूंढ कर के उसको छीलना, उसके एक कोने को नुकीला करना और एक छोटा टुकड़ा लेकर उससे गिल्ली बनाना … याद आया न आपको भी बचपन का वो गिल्ली-डंडा | आज तो जगह ही नहीं बची इस खेल को खेलने के लिए | अब फुर्सत भी कहाँ है किसी के पास कि बच्चों के लिए हम गिल्ली और डंडा तैयार कर के दें | 

कल ही कहीं से आवाज़ आ रही थी …टिन के डब्बों की | बाहर जाकर देखने की जिज्ञासा को रोक नहीं पाई, फिर से बचपन जो याद आ गया था | गाँव का एक बच्चा या शायद किसी मजदूर का बच्चा गधे की पीठ पर बैठा तेज़ी से गधों को हांकता ले जा रहा था | गधों की पीठ पर ईटें लदी हुई थीं और जिस गधे पर वो खुद बैठा था उसपर टिन के कई खाली डब्बे बंधे थे | डब्बों की वो टन-टन किसी संगीत से कम नहीं थी और मन को भा रही थी… बचपन में डब्बे बजा-बजा कर खेलते जो थे | आजकल तो नए-नवेले म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स होते हैं मगर वो मजा नहीं क्योंकि अपनेपन का एहसास तो हमारे बचपन में था | बिना खर्चे का संगीत हर समय हमारे पास उपलब्ध रहता था |

दरअसल ये लिखते लिखते मंदिर की आरती भी बहुत याद आई जो अब कम जगहों पर ही होती है ना ना… आरती होती तो है मगर उस आरती की बात ही कुछ और थी | वो नगाड़ों की धमक, वो घंटियों की आवाज़, वो अगरबत्तियों की महक अब नहीं मिलती हर जगह | अब तो आरती भी इलेक्ट्रॉनिक साज़ों से होती है | नगाड़ों की धमक में खो जाने को दिल करता था और सही मायनों में पूजा का एहसास, ईश्वर के आगे नतमस्तक होने का एहसास और वो ख़ास प्रसाद जिसमें नारियल की चटक, चना-गुड़ और देसी गुलाब की पत्तियाँ होती थी…आह!हा!! क्या आनंद था उन सबमें |

मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू तो सभी को लुभाती है मगर उस गुज़रे ज़माने की मिट्टी की बात ही कुछ और थी… वो मिट्टी में खेलना, लिपे-पुते घर में घुसने पर डांट खाना और हिदायतें मिलती थीं कि पहले बाहर नल पर या बगीचे में लगे पाइप से हाथ-पैर धो कर आओ फिर अन्दर घुसना | अब तो हर पल इन्फेक्शन का डर सताता है और अब मिट्टी भी अपनी वो सोंधी खुशबू खो चुकी है या फिर अब सोंधेपन की उम्र को प्रदूषण ने छोटा कर दिया है |

कहाँ गए वो दिन… जो मेरे अपने थे और जब सब मेरे अपने थे | अब न वो दिन हैं, ना ही वो अपनापन … अब सुरक्षा का ध्यान रखना पड़ता है और तब बारिश में नहाना तो पूरे मोहल्ले का काम था | ज़माना गुज़र गया, शराफ़त ताक में गई, मेरी मिट्टी अब घायल है, मन उद्विग्न है… मोहल्ला पराया है और ज़मीनों पर तेज़ दौड़ती गाड़ियों का हक है … मेरा क्या है … बस मेरी यादें मेरी हैं और कुछ नहीं |
 

Guest Post Life Style

टाई (NECK TIE)

करीने से सिला हुआ कपड़े का एक लम्बा टुकड़ा जिसे गले में शर्ट की कालर के नीचे बाँधा जाता है, टाई के नाम से जग में मशहूर है | इसे बाँधने के लिए अलग अलग प्रकार की गांठें होती हैं | यह ज्यादातर पुरुषों के परिधान का हिस्सा है, महिलाएं भी इसे ख़ास यूनिफ़ॉर्म के हिस्से के रूप में पहनती हैं और कुछ स्कूलों में भी यूनिफ़ॉर्म के साथ टाई का चलन होता है |

Origin of टाई

 

टाई की शुरुआत 1618 से 1648 के मध्य हुई थी | क्रोएशिया के लोगों ने अपनी फ्रेंच सर्विस के दौरान अपने पारंपरिक रूमालों/स्कार्फ को गले में बांधना शुरू किया था | स्कार्फ बाँधने की कला ने फ्रेंच लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था | क्रोएशियन शब्द Croats, Hrvati और फ्रेंच शब्द Croates में ज्यादा अंतर नहीं होने के वजह से इस स्कार्फ का नाम Cravat पड़ा | फ्रांस के नन्हे राजा Louis XIV ने 7 साल की उम्र में लेस से बने Cravat को 1646 में पहनना शुरू कर एक फैशन की शुरुआत करी | यह फैशन यूरोप में आग की तरह फैला और हर कोई इस तरह के कपड़े अपने गले में बाँधने लगा | इन Cravats को गले में बंधा रखने के लिए cravat strings को बो(bow) की तरह बाँधा जाता था | क्रोएशिया में इंटरनेशनल टाई दिवस 18Oct. को मनाया जाता है| 

आधुनिक टाई 

तब से लेकर अब तक टाई ने कई रूप बदले | First World War के पश्चात हाथ से पेंट करी हुई टाई का प्रचलन हुआ जिनकी चौड़ाई 4.5 इंच हुआ करती थी | इस किस्म की टाई 1950 तक चलन में रही | Second World War के समय आज के मुकाबले छोटी टाई का चलन था | मगर 1944 के आसपास टाई ना सिर्फ चौड़ी होती गई बल्कि काफी हद तक चटकीली और डिज़ाइनदार भी | 21वीं सदी के शुरुआत में टाई 3 ½ से 3 ¾ इंच चौड़ी हो गई और उसमें कई डिज़ाइन भी मिलने लगे | लम्बाई 57 इंच या उससे ज्यादा भी रखी जाने लगी | 2009 में टाई के चौड़ाई कुछ कम करी गई | 

टाई को कई तरह की गांठों द्वारा बाँधा जाता है और फैशन के आगमन ने टाई-पिन का भी निर्माण किया जो सोने-चांदी के एवं रत्नों से सज्जित भी होते हैं | टाई बांधना एक कला है, यह हर कोई आसानी से नहीं बाँध पाता, ठीक वैसे ही जैसे हमारे राजस्थान में पगड़ी बांधना एक कला है | टाई को ज्यादा कस कर नहीं बांधना चाहिए क्योंकि इसकी गाँठ बिलकुल गले के बीचों बीच की हड्डी पर आती है और कसने से सांस लेने में तकलीफ हो सकती है | 

Blog Guest Post Life Style

   चाय पीने का नशा

एक छोटी सी बात मन के भी तर कभी कभी इस तरह समाती है कि कलम पर उंगलियों की पकड़ मज़बूतब हो जाती है | एक ऐसी ही घटना ने मुझे नशे से सम्बंधित कुछ शब्द लिखने का मौका दे  दिया | ” इस बात का मेरे मुंह से निकलना था कि यह एक लज़ीज़ भोजन की तरह परोसने का ज़रिया बन गया | तो चलिए कुछ इस तरह पेश करते हैं हम अपनी बात – दारू पीकर तो इंसान बहकने लगता है …

अपनी खुद की कही हुई बात भूल जाता है …पीने की मना ही नहीं है …पीयो मगर बहक कर ऊल- जुलूल हरकतें करने को नहीं , हीं बल्कि हलके फुल्के मज़े के लिए पीयो | अपने अन्दर छुपे हुनर को बाहर निकालना और उससे अपनी पहचा न बनाना -यही ज़िन्दगी है| नशा चाय से भी होता है| बहुत से लोग बिना चाय के तड़पने लगते हैं, जैसे ही चाय हलक से नीचे उतरती है उनकी ऊर्जा का जवाब नहीं होता | नशा तो देशभक्ति का भी होता है…अपने देश के लिए मर मिटने का नशा क्या होता है यह हम सभी जानते हैं| अपनों की कद्र करना , उनकी देखभाल करना और उन्हें खुश रखने की भा वना रखना भी नशा है| नशा विचारों का भी होता है, किसी चीज़ को पाने का भी नशा होता है,  एक जूनून होता है जो इंसान को हर प्रकार की हिम्मत देता है| फिर लोग सिर्फ दारू की बात क्यों करते हैं!!

खुली हवा में सांस लो , लम्बी सांस लो और अपने खुद के बारे में सोचो | हम क्या नहीं कर सकते| ज़िन्दगी झूम कर जीयो मगर बिना पीये झूम लो , दोस्तों !! हमारे अन्दर ज़िन्दगी जीने का सही जज़्बा हो तो यही एक नशा बन जाता है| खुल के जीयो और जीने दो ,इससे बेहतर क्या होगा !! पीना और जीना …उफ़्फ़ लोग इसी बात को एकमात्र सत्य मानते हैं| “नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा ” शायर को शायरी के लिए पीने की ज़रूरत नहीं …

उसको तो मोहब्बत की खूबसूरती का नशा होता है, ठीक वैसे से ही माली को फूल खिलाने और बगिया सजाने का नशा होता है| नशे की बात करें तो सुकून का नशा भी जबरदस्त होता है हर कोई सुकून की तलाश में है पर कितने लोग इसे पाते हैं यह तय कर पा ना बहुत मुश्किल है| कोई तोरा होगी जो सुकून दिलाएगी मगर कौ नसी ? पैसे सेकीचा  इतनी ज्यादा है कि सुकून ख़त्म हो चुका है| आज कोई भी शान्ति से नहीं बैठता , सब अलग ही गणित में लगे हैं, दारु के नशे में सुकून तलाशते हैं| यह भी तो सोचो , दोस्तों से हंसी मज़ाक करके पुराने अच्छे दिन याद करके कितना अच्छा लगता है| दोस्ती का नशा अपना लो , अपनी तना व भरी ज़िन्दगी से राहत पाने का नशा अपना लो | भूल जाओ कि पैसा सब कुछ है, हैबस यह याद रखो कि पैसा चीज़ें खरीद सकता है मन की शान्ति नहीं |

सच ही तो कहा गया है कि पैसा मिलता है मगर यार नहीं तो तुम गरीब हो , और अगर हर वक़्त साथ देने वाले यार दोस्त हैं तो तुम अमीर हो | पैसे से दारू का नशा तो मिल जाएगा मगर अमन चैन से मिलने वाली अच्छी सेहत का नशा कहीं नहीं मिलेगा | ऐसा काम हम क्यों करें जो हमसे हमारी शान्ति छीन ले? ले बरसात में भी गने का नशा , किसी की बातें याद करने का नशा , अच्छीयादों के सहारे जीने का नशा ,घनी ज़ुल्फ़ों के साये का नशा , उफ़ ये शायरों के मस्त अंदाज़ …इनमें डूब जाने का नशा ,संगीत की लहरें हो या समुन्दर की …इनको छू कर पाने का नशा , अँधेरे से निकल कर रोशनी के एहसास का नशा , किसी की चाहत को पाने का नशा और अपने या उसके शायरा ना अंदाज़ पर हंसने से होने वाला नशा , काश कोई समझे कि दुनिया खुद एक नशे की बोतल है और उस नशे को ढूंढने का नशा ….

क्या क्या बताएं हम उन्हें जो

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भारतीय लोक कला मंडल

भारतीय लोक कला मंडल की स्थापना 1952 में विश्वविख्यात लोककलाविद पदमश्री(स्व.) श्री देवीलाल सामर
द्वारा की गई | लोक कला के संरक्षण, उत्थान, विकास और प्रचार  हेतु इस कला मंडल को स्थापित कर
विश्व में विशिष्ट संस्कृति की पहचान लिए हमारा शहर उदयपुर चहुँ ओर ख्याति प्राप्त कर चुका है |
लोक कला मंडल में जीवन संस्कृति को परिभाषित करने वाली अनेकों चीज़ों को देखा जा सकता है | इस कला
मंडल का मुख्य उद्देश्य कुछ इस प्रकार से है :

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  1.  लोक गीतों, लोक नृत्यों और लोक कलाओं को पहचान दिलाना और उन्हें विकसित करना
  2.  उपरोक्त दिशाओं में शोध को बढ़ावा देना
  3.  पारंपरिक लोक कलाओं को आधुनिक परिवेश के अनुसार विकसित करना
  4.  भारत और विदेशों में कठपुतली, लोक नृत्य और गीतों के कार्यक्रम आयोजित करना
  5.  लोक कथाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रशिक्षण देना
  6.  लोक कलाकारों को प्रोत्साहन देना
  7.  सम्बंधित विषयों के कार्यक्रम आयोजित करना

भारतीय लोक कला मंडल लोक कलाओं को ना सिर्फ पहचान दिलाना चाहता है बल्कि छुपी हुई कलाओं को भी
बाहर लाने का प्रयास करता है जिसके लिए अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है |
Audiovisual तरीकों के माध्यम से एवं संग्रह के माध्यम से जनता को लोक परम्पराओं की जानकारी उपलब्ध
कराई जाती रही है | विभिन्न कलाओं पर कई किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं |

यहाँ अनेकों लोक नृत्यों का मंचन भी होता है जैसी घूमर, भवाई , डाकिया, तेरह ताल, कालबेलिया आदि |
कठपुतली बनाना और संचालन करना भी एक बहुत महत्वपूर्ण लोक कला है, अतः इस बारे में भी प्रशिक्षण
दिया जाता है | नाटकों का मंचन लोक कलाओं, रिवाजों, कथाओं एवं भ्रांतियों को उजागर करने के लिए किया
जाता है | कठपुतली बनाने की कला लगभग लुप्त हो चली थी, इस कला के माध्यम से कई कथाएँ आम
जनता तक पहुंचाई गई हैं इसलिए इस कला को भी दुबारा विकसित करने के इरादे से लोक कला मंडल ने
अनेकों कदम उठाए हैं |

हर साल 22 और 23 फरवरी को दो दिवसीय मेले का आयोजन स्थापना दिवस मनाने के लिए किया जाता है |
इस मेले में राजस्थान के कलाकारों के अलावा समीप के राज्यों के कलाकार भी प्रस्तुतियां देते हैं | इस मेले का
मुख्य उद्देश्य उभरते कलाकारों को एक मंच देकर उनकी प्रतिभा को उभारना भी है |

Life Style

* जीवन * रूप है एक  होटल का,

 यात्री है हम सब कुछ समय के,

 कोई रहता है नब्बे तो कोई सत्तर, कोई  पचास, तो कोई चालीस,

 किसी ने, एसी, कमरा बुक कराया है ,तो किसी ने नॉन एसी ,

कोई कॉमन हाल में खड़ा है,

 तो कोई बाहर यूं ही खड़ा है,

 जानते हैं हम सभी के,

 रह कर जाएंगे चंद दिनों में,

फिर भी तेरा मेरा करते रहते हैं,

यूं ही आपस में लड़ते झगड़ते रहते हैं,

जी जी कर भी मरते रहते हैं ,

एक दिन तो वह भी आएगा,

 चेक-आउट सभी का हो जाएगा, फिर कुछ याद आएगा ,

पछताएंगे,

पर तब तक,

वक्त, हाथ से निकल जाएगा, इसलिए इस होटल रूपी जीवन में चेक इन, करते ही,

 कर लें, कुछ अच्छे कर्म,

 वरना जाते समय रह जाएगा यह गम,

के क्यों हमने पहले नहीं सोचा था ,

क्यों हमने पहले नहीं जाना था,

 कोई बात नहीं,

अब भी, समय है, जान ले, वक्त है, अपने आप को, पहचान ले,

 करेगा भला, तो होगा ही भला, शुरुआत अच्छी है, तो अंत होगा ही अच्छा,

कुछ सबर तू यदि  कर ले ,

तो क्या हो जाएगा,

जीवन रूपी होटल में,

 रहने जब आया ही है,

तो कुछ ऐसा कर,

 कि जाने के बाद,

 याद ही आएगा,  याद ही आएगा,

-अनीता सुखवाल

अम्बा माता

उदयपुर

anitasukhwal@gmail.com

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Life Style

किशन..किशन.. ओ किशन..पिताजी की रौबदार आवाज सुनकर किशन क्रिकेट के खेल को छोड़कर भागा दुसरे रास्ते से..ये रोज की कहानी थी..किशन छठी कक्षा में पढ़ता था..और स्कूल से आते ही वो गांव के दूसरे बच्चों के साथ नदी किनारे खेलने चला जाता था..पिताजी ढूंढते हुए आते और किशन बच कर भागता था

आज जब किशन घर पहुंचा तो उसने अपनी माँ से यूँ ही पुछा.. कि पिताजी मुझे इतना क्यों डाँटते है..तो माँ ने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए थाली में खाना परोसा और मासुम किशन को अपने और उसके पिताजी के बीते दिनों के बारे  में बताया..कि बेटा तेरे पिताजी अपने भाइयों में सबसे छोटे है..और वो पढ़ाई पुरी करने के बाद अपनी दुसरे जिले के एक गाँव में पसंदीदा अध्यापक की नौकरी छोड़कर अपने गाँव में दादाजी की दुकान चलाने लगे थे और फिर ईश्वर ने हमें एक के बाद एक चार बेटियां दी..और उसमें पहली बेटी प्रेमा का देहांत मात्र 6 साल की उम्र में पिताजी की आँखों के सामने हो गया जब वो खेलते खेलते दुकान के सामने वाले मंदिर की छत से गिर गई..उसके बाद 5 वें नंबर पर तेरा जन्म हुआ बेटा.. तेरे जन्म पर तेरे पिताजी ने पुरे गाँव में जशन मनाया था..कि हमारे घर में भी बेटा हुआ है अब कोई गांव में ये नहीं कहेगा कि किस्मत वालों के घर में ही बेटा होता है तुम तो अभागे हो..इसलिए वो हमेशा तुझमें अपना सपना देखते है बेटा वो चाहते है कि तु बहुत बड़ा आदमी बने और परिवार का और गाँव का नाम रोशन करें..यकायक उस दिन किशन अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो गया..

और अगले दिन से किशन बदल चुका था..अब वो स्कूल से आते ही खाना खाता था और सीधा पिताजी के पास दुकान जाता था..3 साल में पिताजी की संगत से किशन पढ़ने में पूरी स्कूल में अव्वल आने लगा..और साथ ही पिताजी की दुकानदारी भी संभालने लगा..खाली समय में वो पिताजी के साथ मिलकर अखबार में छपे फ़ोटो देखकर कागज पर हूबहू बनाने की कोशिश करता था..कहानियां पढ़ता था..दुकान पर रखे कैलकुलेटर से खेलता था

आज किशन का आठवीं कक्षा का रिजल्ट आया और उसने फिर स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया था…पिताजी ने बड़ा सपना देखा और मां से कहा हम इसे गाँव में नहीं रखेंगे और आगे किसी बड़े शहर में हॉस्टल में पढ़ने भेजेंगे और ..ऐसे पिताजी की जिद के आगे किसी की नहीं चली और मात्र 12 साल की उम्र में वो शहर के नामी स्कूल में 9 वीं कक्षा में प्रवेश ले चुका था..

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एक दिन सर्दी की रात में ग्यारह बजे घुप्प अंधेरे में गाँव के घर की घंटी बजी.. पिताजी ने दरवाजा खोला..सामने डरा सहमा किशन खड़ा था..जो स्कूल से भाग कर रेल में बैठकर घर आ गया था..क्योंकि वो कम उम्र और शहर की चकाचौंध में उलझ गया था उसकी दोस्ती अपने से बड़े लेकिन हॉस्टल में साथ रहने वाले बच्चो से हो गई थी..और वो हॉस्टल से भाग भाग कर क्रिकेट और फिल्में देखने का शौकीन बन गया था..दसवीं कक्षा में इसी वजह से वो 2nd डिवीजन से पास हुआ था..उसके बाद से वो उस अपराधबोध में आ गया था जो उसने कभी किया ही नहीं.. वो अंतर्मुखी बन चुका था..हमेशा सहमा सहमा रहता था..हर पल उसे असफलता काटने को दौड़ती थी..लेकिन वो ये सब पिताजी को समझा नहीं पा रहा था..

खैर,पिताजी ने हिम्मत नहीं हारी और नाराज मन से वो किशन को पास के एक दूसरे छोटे शहर में दुसरे हॉस्टल और सरकारी स्कूल में दाखिला दिला कर आये और साथ में लाल रंग की एक सुंदर साइकिल दिलाई..कुछ ही दिनों में किशन फिर से उसी पुराने रंग में चहकने लगा..सरकारी स्कूल , छोटा शहर और हाथ में साइकिल..थोड़ा सयाना भी हो गया था..क्योंकि अब इस हॉस्टल में उसे खाना बनाना और कपड़े धोना खुद करना होता था

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था,आज बारहवीं साइंस का रिजल्ट आया किशन फिर से 1st डिवीजन से पास हुआ..फिर से पिताजी बहुत खुश हुए क्योंकि पुरे गाँव में किशन अकेला उस साल 1st डिवीजन से पास हुआ था..फिर पिताजी ने बड़ा सपना देखा और माँ को बोला..हम अपने किशन को डॉक्टर बनाएंगे.. और फिर से किशन अपने उसी पुराने शहर में आ गया जहाँ से वो पिताजी के सपने को अधुरा छोड़ भागा था..पिताजी ने एक घर किराये पर ले कर दिया शहर में और किशन वहाँ अपने एक दोस्त के साथ रहने लगा..अब किशन की लाल साइकिल बड़े शहर की सड़कें नापने लगी थी इस कोचिंग से उस कोचिंग..कुछ नए दोस्त बन गए थे..पढ़ाई भी पूरी लगन से करता था किशन.. देखते देखते एक साल गुजर गया

आज किशन बहुत निराश था.. उसे भय था कि उसकी पुरी साल की मेहनत का परिणाम आज आने वाला है अगर पास नहीं हुआ तो..और हुआ भी कुछ ऐसा ही..किशन प्री मेडिकल परीक्षा में पास तो हुआ लेकिन कुछ ही नंबरों से सलेक्ट नहीं हो पाया..एक बार फिर किशन और उसके पिताजी का सपना हाथ से छिटक गया, किशन अंदर तक टूट चुका था..किशन भारी मन से गाँव की बस में बैठा.. और जैसे ही घर पहुँचा उसमें अपने पिताजी का सामना करने का साहस नहीं बचा था..वो माँ से मिला..आज पहली बार किशन को पिताजी की अवस्था का पता चला कि किस तरह गाँव की दुकान से मेहनत कर करके पिताजी ने किशन के भविष्य को अपना सपना बनाया था..और किशन उस सपने को पुरा नहीं कर पा रहा था.. किशन ने अपने परिवार की अवस्था के सामने समर्पण कर दिया..

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पिताजी ने फिर हिम्मत नहीं हारी और किशन को फिर उसी शहर ले आये.. सामान्य कॉलेज में दाखिला करा दिया और पार्ट टाइम में किशन को अपने एक जानकर के माध्यम से दुकान पर नौकरी लगवा दी..दिन में कॉलेज शाम को दुकान..और महीने में एक बार गाँव.. किशन को अब सब समझ आने लगा था कि छोटे भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई.. तीन बड़ी बहनों की शादी..और घर की सभी जिम्मेदारियां पिताजी अकेले अपने कंधे पर लेकर चल रहे थे..

आज किशन को अपने बड़े होने का अहसास हुआ..उसने माँ पिताजी से बात की..और पंडित जी के कहने पर जिस शहर में किशन के सारे सपने अधुरे रह गए थे..उसी शहर में किशन को पिताजी ने कर्ज लेकर एक दुकान लगवा दी..कुछ ही दिनों में किशन की दुकान बहुत बढ़िया चल पड़ी..पिताजी की मदद की वजह से किशन पर कभी आर्थिक बोझ आया ही नहीं..किशन फिर से..सबकुछ भूल गया..और अपनी दुनिया में मस्त हो गया..अब घर में किशन की शादी की बात चलने लगी..और अपने गाँव के पास वाले गाँव में किशन की शादी तय हो गई..

दुकान लगाने के 2 साल के भीतर किशन की शादी हो गई..किशन को राधा के रूप में अच्छी जीवन संगिनी मिली..दोनों अपनी जिंदगी मजे से गुजार रहे थे कि एक दिन राधा ने बताया..कि घर में नया मेहमान आने वाला है..किशन ने राधा से कहा..अगर बेटा हुआ तो हम उसका नाम राजा रखेंगे.. और बेटी हुई तो उसका नाम परी रखेंगे.. ईश्वर की कृपा से राधा की गोद में राजा आया..अब राधा राजा के साथ व्यस्त रहने लगी..वो दिन भर घर के काम करती और पुराने कैमरे से राजा के फोटो खिंचती रहती..कभी कभी राजा को लेकर दुकान आ जाया करती थी

एक दिन किशन का छोटा भाई चेतन एक कंपनी में काम करने का प्रस्ताव लेकर आया..और दोनों भाइयों ने निश्चय किया कि हम मिलकर दुकान के अलावा एक और काम शुरू करते है..जब जब चेतन की इंजीनियरिंग कॉलेज में छुट्टियां होती वो भाई भाभी के पास आ जाता दोनों भाई दिन में दुकान पर बैढते थे और जब जब भी समय मिलता वो नए काम काम को बढ़ाने का प्रयास करते..शुरुआत में लोगों ने उन्हें नकार दिया..उनका मजाक बनाया.. लेकिन किशन और चेतन एक बात समझ चुके थे कि यदि अपनी कहानी किसी को सुनानी है तो पहले हीरो बनना पड़ेगा.. जीरो को सुनना कोई पसंद नहीं करता है..उन्होंने सीखना शुरू किया..सीखते गए..करते गए.. इस बीच चेतन की पढ़ाई पुरी हुई और शादी भी हो गई..वो अपनी नौकरी की वजह से दुसरे शहर चला गया..

अब किशन अपने परिवार के साथ एक शहर में चेतन अपने परिवार के साथ दुसरे शहर में और माताजी पिताजी गाँव में…

समय कहाँ रुकने वाला था..किशन भी अपनी गति से चल रहा था..परंतु किशन को एक बात मन ही मन में हमेशा कचोटती रहती थी कि जीवन में वो वह काम नहीं कर पाया जो उसका और उसके पिताजी का सपना था..वो काम तो कर रहा था..पैसे भी कमा रहा था..लेकिन उसका सपना अधुरा रह गया था..वो अंतर्मुखी व्यवहार की वजह से कभी अपनी मन की बात किसी को कह नहीं पाता था..इसी बात को लेकर अक्सर किशन और राधा की आपस में नोंक झोंक हो जाया करती थी..दोनों फिर एक दुसरे को मनाते थे ..

समय की रफ्तार के आगे किसकी चली है..अब किशन और राधा का परिवार में एक और सदस्य बढ़ चुका था..प्रेम.. राजा का छोटा भाई.. किशन ने घर की सारी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली थी..राधा उसका साथ दे रही थी..और दोनों अपने सपनों के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे थे..उधर चेतन और उसकी पत्नी दमयंती भी नौकरी छोड़कर अपना कारोबार करने लगे थे..उनके भी दो बच्चें हो गए थे..तीनों बहने अपने अपने घर परिवार में खुशहाल जिंदगी जी रही थी..माताजी पिताजी अब गाँव छोड़कर कभी चेतन के पास तो कभी किशन के पास रहने लगे थे..समय गुजरता गया

राजा अब बड़ा हो गया था..और आज पुरा परिवार बहुत खुश था..आज राजा का प्री मेडिकल का रिजल्ट आया.. राजा बहुत अच्छे नम्बरों से select हो गया था..आज किशन बहुत खुश था और उसे और राधा को अपने राजा पर गर्व हो रहा था भाई प्रेम भी बहुत खुश हो रहा था..और परिवार में हर सदस्य किशन राधा और राजा को बधाइयाँ दे रहे थे..और क्यों नहीं आज राजा की वजह से किशन और उसके पिताजी का सपना पुरा हो गया था

किशन के जीवन में आज फिर एक बहुत बड़ा दिन आया है..जिस कंपनी का काम किशन और चेतन ने मिलकर शुरू किया था..आज पुरा परिवार उसमें रम गया था..आज किशन और राधा उस कंपनी में सर्वोच्च पद पर पहुँच गए है..और आज उनका शहर के सबसे बड़े स्टेडियम में सम्मान होने वाला है..इनडोर स्टेडियम के बाहर लम्बी कतार लगी हुई है अंदर आने वालों की..अंदर एक तरफ शानदार लाइटों से स्टेज सज़ा हुआ है और …आखिर इंतजार की घड़ियां समाप्त हुई..अब वो पल आ गया जब स्टेज से किशन और राधा का नाम पुकारा जाता है..काले रंग के सूट में किशन और लाल रंग के लंबे डिज़ाइनर गाऊन में राधा दोनों आज बहुत खूबसूरत लग रहे है..खचाखच भरे हॉल में सीटियां बज रही है लोग फोटो ले रहे है..आवाज कर रहे है..राधा-किशन, राधा-किशन…

किशन और राधा के खुशी के आंसू थम नहीं रहे है..किशन का सपना था डॉक्टर बनना ,आज बहुत सारे डॉक्टर उस हॉल में मौजूद है जो किशन को सुनने आये है, दोनों अपने मन को काबू करने का नाकाम प्रयास कर रहे है..लोग उनकी सफलता की कहानी सुनने को बेताब हो रहे है..बहुत ही मुश्किल से अपनी आवाज को संभालते हुए किशन और राधा आत्मविश्वास से अपनी कहानी सुनाते है..पुरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा है..

आयोजको से निवेदन करके किशन और राधा अपने बच्चों और माताजी पिताजी को स्टेज पर बुलाते है..पुरा हॉल अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है परिवार के सम्मान में और किशन के पिता को दो शब्द कहने के लिए कहा जाता है..किशन के पिता अपने आंसू रोक नही पाते है..वो बहुत कुछ बोलना चाहते है लेकिन बोल नही पा रहे है..वो सिर्फ इतना बोलते है कि “मुझे अपने बच्चों पर गर्व है”..और काँपते हाथों से माइक किशन को थमा देते है और किशन भीड़ की तरफ रुख करके बोलता है..दोस्तों.. “अपने सपनों को कभी मरने मत देना..” सपनों के पीछे लगे रहना एक दिन ऐसा आएगा जब आपके माता पिता आप को बिना कहे बहुत कुछ कह जाएंगे.. जैसे आज मुझे अपने परिवार का एक एक सदस्य कह रहा है..हमें आप पर गर्व है..एक दिन आप स्टेज पर होंगे और आपका परिवार कह रहा होगा.. “हमें आप पर गर्व है..” सामने तकरीबन 10हजार लोंगो की भीड़ में पहलीं कतार में खड़े चेतन, दमयंती और तीनों बहनों के परिवार खड़े तालियाँ बजा रहे है..और चेतन और दमयंती ये सोच कर खुश हो रहे है कि अगला नाम उनका पुकारा जाने वाला है..!

समाप्त

क्या आपके घर में भी कोई किशन बड़ा हो रहा है..?क्या आपके यहाँ भी कोई चेतन है..?क्या आप भी किसी राधा के माता या पिता है..?क्या आपका राजा भी सपने बुन रहा है..?हजारों डरे सहमे बच्चें गाँवों से शहरों में आते है हर साल उच्च शिक्षा के लिए.. यदि आपका बच्चा भी इनमें से एक है तो एक शिक्षा अपने बच्चे को जरूर देना जो किशन के पिता ने किशन को दी थी कि चाहे जो हो जाय “ईमानदारी और सपनों को कभी दामन थामे रखना,  एक दिन समय तुम्हारा होगा..और लोग तुम्हारे जैसा बनना चाहेंगे”

– Name : Praveen Kumar jain

 – Email : campraveenpriya@gmail.com