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पृथ्वीराज चौहान अजमेर 

बारहवीं शताब्दी में चौहान वंश के पृथ्वीराज चौहान अपने शौर्य और वीरता के लिए जाने जाते हैं| उनका जन्म 1168 में अजमेर में महाराजा सोमेश्वर चौहान और महारानी कमला देवी के यहाँ हुआ था | बचपन में ही पृथ्वीराज चौहान ने अपने खाली हाथों ही शेरको मार गिराया था | गुजरात के राजा भीमदेव को उन्होंने मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में परास्त किया था | उनकी इस बहादुरी के लिए उनके दादाश्री अंगम ने उन्हें दिल्ली का राजा घोषित कर दिया था

पृथ्वीराज चौहान ने एक सुदढ़ राजपूत राज्य कायम किया और उसे उत्तर पश्चिम तक फैला दिया | इनका विवाह संयुक्ता से हुआ जो उनके दुश्मन जयचंद्र गढ़वाल की पुत्री थीं | पृथ्वीराज संयुक्ता की प्रेम कहानी भारतीय इतिहास में बेहद प्रसिद्द है

1911 में पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन मुहम्मद घौरी को परास्त किया और बिना कोई चोट पहुंचाए उसे माफ़ कर दिया | घौरी ने 1192 में फिर से पृथ्वीराज पर हमला बोल दिया और इस बार युद्ध जीत लिया | पृथ्वीराज चौहान को घौरी ने न सिर्फ कैद किया बल्कि गर्म सलाखों से दाग कर उन्हें अँधा बना दिया

कुछ समय उपरान्त पृथ्वीराज ने घौरी को तीरंदाजीके मुकाबले में अपने मित्र चाँद बरदाई की मदद से मार गिराया किन्तु घौरी के अंगरक्षक ने उन्हें मार दिया

पृथ्वीराज रासो चाँद बरदाई द्वारा लिखी गई एक कविता है, जो कि उन्हीं के दरबार में कवि भी थे | इसमें पृथ्वीराज चौहान की जीवनी दर्शाई गई है |

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Mandana paintings are wall and floor paintings of Rajasthan and Madhya Pradesh. Mandana are drawn to protect home and hearth, welcome gods into the house and as a mark of celebrations on festive occasions.

 Village women in the Sawai Madhopur area of Rajasthan possess skill for developing designs of perfect symmetry and accuracy. The art is typically passed on from mother to daughter and uses white khariya or chalk solution and geru or red ochre. They use twigs to draw on the floors and walls of their houses, which are first plastered with clay mixed with cow dung. More tools employed are a piece of cotton, a tuft of hair, or a rudimentary brush made out of a date stick. The design may show Ganesha, peacocks, women at work, tigers, floral motifs, etc.

In the Meena villages of Rajasthan women paint not just the walls and floors of their own homes to mark festivals and the passing seasons, but public and communal areas as well, working together and never leaving individual signatures. 

Famed for warding off evil and acting as a good luck charm, the tribal paintings are derived from the word ‘Mandan’ referring to decoration and beautification and comprises simple geometric forms like triangles, squares and circles to decorate houses.

Though Mandana art has seen a drastic drop in visibility, and has less of takers among villagers due to rise in number of concrete houses, the art still holds the rustic charm, and its paintings adorn walls of patrons. According to experts in the Mandana art form, the traditionally drawn designs bear architectural and scientific significance.

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मोर पंख (peacock feather)

Peacock feather is considered to be very auspicious (शुभ) in Indian homes. It is considered to be part of देवताओं का गहना. It is a very commonly known fact that Lord Krishna always had a मोर पंख in his crown or head gear. This is one reason he cannot be imagined without the पंख and the मोर पंख (peacock feather) is associated with Lord Krishna without any second thought. The auspicious belief about मोर पंख is that it attracts wealth. So having it in the house is considered very lucky. It should be placed at an easily visible place in the house. Since peacock eats snake, it is said that if you have मोर पंख in your house, you are free from the fear of snakes. 

As per Hindu mythology, Lord Kartikeya (कार्तिकेय) (son of Lord Shiva) rides a peacock. The beauty of peacock is the main reason behind it being declared as the national bird of India. Wild life conservation act of 1962 declared peacock killing an offence (अपराध). The peacock dance during rainy season is a rare sight now, but those who get to see it know what a fascination (सम्मोहन) it is to see the beautiful bird spread its wings and dance to the tunes of the weather welcoming the rain. The brightness of the colours is what we know as peacock-blue or peacock-green. 

A lot of songs have been written inspired by peacock dance. “जंगल में मोर नाचा किसी ने ना देखा ” being the most commonly sung song of 1958,  “सावन का महीना पवन करे सोर, जियरा रे झूमे ऐसे जैसे बन मा नाचे मोर” of 1967 is the song that comes to mind not just because of the word मोर but because of the style of the song, too, though without the “मोर”, we would not have thought of it just now. 

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   चाय पीने का नशा

एक छोटी सी बात मन के भी तर कभी कभी इस तरह समाती है कि कलम पर उंगलियों की पकड़ मज़बूतब हो जाती है | एक ऐसी ही घटना ने मुझे नशे से सम्बंधित कुछ शब्द लिखने का मौका दे  दिया | ” इस बात का मेरे मुंह से निकलना था कि यह एक लज़ीज़ भोजन की तरह परोसने का ज़रिया बन गया | तो चलिए कुछ इस तरह पेश करते हैं हम अपनी बात – दारू पीकर तो इंसान बहकने लगता है …

अपनी खुद की कही हुई बात भूल जाता है …पीने की मना ही नहीं है …पीयो मगर बहक कर ऊल- जुलूल हरकतें करने को नहीं , हीं बल्कि हलके फुल्के मज़े के लिए पीयो | अपने अन्दर छुपे हुनर को बाहर निकालना और उससे अपनी पहचा न बनाना -यही ज़िन्दगी है| नशा चाय से भी होता है| बहुत से लोग बिना चाय के तड़पने लगते हैं, जैसे ही चाय हलक से नीचे उतरती है उनकी ऊर्जा का जवाब नहीं होता | नशा तो देशभक्ति का भी होता है…अपने देश के लिए मर मिटने का नशा क्या होता है यह हम सभी जानते हैं| अपनों की कद्र करना , उनकी देखभाल करना और उन्हें खुश रखने की भा वना रखना भी नशा है| नशा विचारों का भी होता है, किसी चीज़ को पाने का भी नशा होता है,  एक जूनून होता है जो इंसान को हर प्रकार की हिम्मत देता है| फिर लोग सिर्फ दारू की बात क्यों करते हैं!!

खुली हवा में सांस लो , लम्बी सांस लो और अपने खुद के बारे में सोचो | हम क्या नहीं कर सकते| ज़िन्दगी झूम कर जीयो मगर बिना पीये झूम लो , दोस्तों !! हमारे अन्दर ज़िन्दगी जीने का सही जज़्बा हो तो यही एक नशा बन जाता है| खुल के जीयो और जीने दो ,इससे बेहतर क्या होगा !! पीना और जीना …उफ़्फ़ लोग इसी बात को एकमात्र सत्य मानते हैं| “नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा ” शायर को शायरी के लिए पीने की ज़रूरत नहीं …

उसको तो मोहब्बत की खूबसूरती का नशा होता है, ठीक वैसे से ही माली को फूल खिलाने और बगिया सजाने का नशा होता है| नशे की बात करें तो सुकून का नशा भी जबरदस्त होता है हर कोई सुकून की तलाश में है पर कितने लोग इसे पाते हैं यह तय कर पा ना बहुत मुश्किल है| कोई तोरा होगी जो सुकून दिलाएगी मगर कौ नसी ? पैसे सेकीचा  इतनी ज्यादा है कि सुकून ख़त्म हो चुका है| आज कोई भी शान्ति से नहीं बैठता , सब अलग ही गणित में लगे हैं, दारु के नशे में सुकून तलाशते हैं| यह भी तो सोचो , दोस्तों से हंसी मज़ाक करके पुराने अच्छे दिन याद करके कितना अच्छा लगता है| दोस्ती का नशा अपना लो , अपनी तना व भरी ज़िन्दगी से राहत पाने का नशा अपना लो | भूल जाओ कि पैसा सब कुछ है, हैबस यह याद रखो कि पैसा चीज़ें खरीद सकता है मन की शान्ति नहीं |

सच ही तो कहा गया है कि पैसा मिलता है मगर यार नहीं तो तुम गरीब हो , और अगर हर वक़्त साथ देने वाले यार दोस्त हैं तो तुम अमीर हो | पैसे से दारू का नशा तो मिल जाएगा मगर अमन चैन से मिलने वाली अच्छी सेहत का नशा कहीं नहीं मिलेगा | ऐसा काम हम क्यों करें जो हमसे हमारी शान्ति छीन ले? ले बरसात में भी गने का नशा , किसी की बातें याद करने का नशा , अच्छीयादों के सहारे जीने का नशा ,घनी ज़ुल्फ़ों के साये का नशा , उफ़ ये शायरों के मस्त अंदाज़ …इनमें डूब जाने का नशा ,संगीत की लहरें हो या समुन्दर की …इनको छू कर पाने का नशा , अँधेरे से निकल कर रोशनी के एहसास का नशा , किसी की चाहत को पाने का नशा और अपने या उसके शायरा ना अंदाज़ पर हंसने से होने वाला नशा , काश कोई समझे कि दुनिया खुद एक नशे की बोतल है और उस नशे को ढूंढने का नशा ….

क्या क्या बताएं हम उन्हें जो

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भारतीय लोक कला मंडल

भारतीय लोक कला मंडल की स्थापना 1952 में विश्वविख्यात लोककलाविद पदमश्री(स्व.) श्री देवीलाल सामर
द्वारा की गई | लोक कला के संरक्षण, उत्थान, विकास और प्रचार  हेतु इस कला मंडल को स्थापित कर
विश्व में विशिष्ट संस्कृति की पहचान लिए हमारा शहर उदयपुर चहुँ ओर ख्याति प्राप्त कर चुका है |
लोक कला मंडल में जीवन संस्कृति को परिभाषित करने वाली अनेकों चीज़ों को देखा जा सकता है | इस कला
मंडल का मुख्य उद्देश्य कुछ इस प्रकार से है :

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  1.  लोक गीतों, लोक नृत्यों और लोक कलाओं को पहचान दिलाना और उन्हें विकसित करना
  2.  उपरोक्त दिशाओं में शोध को बढ़ावा देना
  3.  पारंपरिक लोक कलाओं को आधुनिक परिवेश के अनुसार विकसित करना
  4.  भारत और विदेशों में कठपुतली, लोक नृत्य और गीतों के कार्यक्रम आयोजित करना
  5.  लोक कथाओं को लोगों तक पहुंचाने के लिए प्रशिक्षण देना
  6.  लोक कलाकारों को प्रोत्साहन देना
  7.  सम्बंधित विषयों के कार्यक्रम आयोजित करना

भारतीय लोक कला मंडल लोक कलाओं को ना सिर्फ पहचान दिलाना चाहता है बल्कि छुपी हुई कलाओं को भी
बाहर लाने का प्रयास करता है जिसके लिए अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है |
Audiovisual तरीकों के माध्यम से एवं संग्रह के माध्यम से जनता को लोक परम्पराओं की जानकारी उपलब्ध
कराई जाती रही है | विभिन्न कलाओं पर कई किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं |

यहाँ अनेकों लोक नृत्यों का मंचन भी होता है जैसी घूमर, भवाई , डाकिया, तेरह ताल, कालबेलिया आदि |
कठपुतली बनाना और संचालन करना भी एक बहुत महत्वपूर्ण लोक कला है, अतः इस बारे में भी प्रशिक्षण
दिया जाता है | नाटकों का मंचन लोक कलाओं, रिवाजों, कथाओं एवं भ्रांतियों को उजागर करने के लिए किया
जाता है | कठपुतली बनाने की कला लगभग लुप्त हो चली थी, इस कला के माध्यम से कई कथाएँ आम
जनता तक पहुंचाई गई हैं इसलिए इस कला को भी दुबारा विकसित करने के इरादे से लोक कला मंडल ने
अनेकों कदम उठाए हैं |

हर साल 22 और 23 फरवरी को दो दिवसीय मेले का आयोजन स्थापना दिवस मनाने के लिए किया जाता है |
इस मेले में राजस्थान के कलाकारों के अलावा समीप के राज्यों के कलाकार भी प्रस्तुतियां देते हैं | इस मेले का
मुख्य उद्देश्य उभरते कलाकारों को एक मंच देकर उनकी प्रतिभा को उभारना भी है |

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      बलात्कार [ एक सत्य घटना ]

मुन्नी! उठ देख बाहर क्या हो रहा है हमारी कालोनी में चोर आया है ,सब उसे पीट रहे हैं।
चोर!!!! मैने चद्दर में से मुंह निकालते हुए डर और उत्सुकता के सम्मिलित भाव से दीदी को देखते हुए बोला।
हां, चोर अब उठ मुन्नी
अपनी आँखों को मसलते हुए, क्षणिक मन में खयाल आया की छत पर देर तक सोते रहने के मजे तो बस गर्मी की छुट्टियों में ही ले सकते हैं और इस निगोड़े चोर ने सब बिगाड़ दिया
“अरे मुन्नी बिस्तर में बैठी क्या सोच रही है इधर आ ना ”
इस आवाज को सुनते ही मेरी सारी इंद्रियांं एक साथ काम करने लगी,क्योंकि ये मेरी सहेली सोनु की आवाज थी, जो अपनी छत से मेरी छत पर दौड़ती आ रही थी, तब छतों के बीच दीवार नहीं हुआ करती थी हम सब बच्चे घरों की छतों पर सरपट दौड़ते थे, रेस करने को,
अरे उठ तुझे चोर नहीं देखना क्या? दीदी छत की डोली पर खड़ी- खडी़ फिर से मेरी तरफ देख बोली।
“पर मुझे डर लगता है चोर बहुत डरावने होतें हैं। “मैं अपनी गोल- गोल आखोँ को फैलाते हुए बोली।
“अरे नी लगेगा मुन्नी ये चोर डरावना नहीं है” सोनु ने इतना कहा और मेरा हाथ खींच कर उसके घर की छत की डोली तक ले गयी।
नींद से सराबोर मैंने जब अपनी आँखों को मसलते हुए, डर और उत्सुकता के मिश्रित भाव के साथ छत से नीचे झांका
पूरी कालोनी के लोग, मेरे घर से एक घर दूर भगवती अंकल के घर के आसपास खड़े थे, मैं सोनु के घर की छत पर खड़ी थी जो भगवती अंकल के घर के बिल्कुल सटा हुआ था तो उस घर के आसपास होने वाला घटनाक्रम मुझे स्पष्ट दिख रहा था।
अचानक मैने देखा भगवती अकंल एक मोटे से डंडे को हाथ में लिये, गुस्से में लाल पिले होते हुए, अजीब सी गालियाँ दे रहे थे, (वे गालियाँ मुझ 8 साल की बच्ची के लिए अनजान थी,लेकिन आज उन अपमान जनक शब्दों का अर्थ जानती हूँ )
और उस मोटे डंडे से मेरी दीदी जितनी बड़ी लगभग 16-17 साल की लड़की को पीट रहे थे।
इनको अंकल क्यों मार रहे हैं सोनु, मेरे ये पुछने पर वो तपाक से बोली
“अरे मुन्नी यही तो चोर है ”

चोर! लेकिन मेरी कल्पनाओं का चोर तो काला सा, बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूछो वाला, लाल- लाल आखोँ वाला था बड़ा ही भयानक और डरावना था

पर ये तो डरावनी नहीं थी, बिखरे -उलझे बाल, रूआसी उदास आँखे, बहुत रोने से चेहरे पर मंडित आसूंओं के निशान, सूखे होठ, डर से थरथराता शरीर, कपड़ों के नाम पर बदन पर सिर्फ सफेद मेक्सी जो नीचे से खून से लाल हुए जा रही थी ,खुद के रक्तिम कपड़ों को अपने हाथों से ढकने का निष्फल प्रयास करती हुई जाने क्यों वो आदमियों की टोली से डरते हुए, बार -बार वहाँ जाने की कोशिश कर रही थी, जहाँ मम्मी और सब आन्टी खड़ी थीं।
“इसने क्या चुराया होगा ?” मेरा बाल मन सोच में खो गया………. !
लेकिन अचानक मैंने देखा वो लड़खड़ाते हुए हाथ जोड़कर सब औरतों से मदद मांग रही थी कि अचानक सामने रहने वाले आंटी बोले इसने मेरी बेटी की मैक्सी चुराई है।
कोने वाले घर में रहने वाली आंटी बोली सारी रात आटो की आवाजें आ रही थी ,हमने खिड़की से देखा आटो में बैठे 5-6 लड़के हाथ में तलवार लिए इधर-उधर आटो दौड़ा रहे थे।
इतने में मेरे बिल्कुल बगल में रहने वाली आंटी बोली हमारी गुड्डा पढ़ रही थी रात में बाहर नीम के पेड़ के पास एक लाल रंग से सनी बिना कपड़ो की खुले बाल वाली चुड़ेल देख डर गई बिचारी , कहीं वो यही तो ना थी ।
भगवती अंकल बीच में लपके मेरे खुले आंगन में पड़े बिस्तर पर सो गई सारे बिस्तर खराब कर दिये।

उसकी जिव्हा जैसे शब्दों को बोलने के प्रयास में व्यर्थ थी।उसकी आंखों से रिसते आंसू और शरीर से रिसता खून उसके दर्द को बता रहा था पर
मानवता उस दिन अवकाश पर थी ,इनसानियत घुंघट ओढ़ कर बैठी थी ।
अंत में सब लोगों ने उसे मार पीट कर हमारी गली से निकाल दिया।
और वो रोती हुई बेबस हालात में खून से भरी उस मैक्सी को पहने ,शरीर से टपकते खून के साथ जाने कहां चली गई।
भगवती अंकल ने सामने के पार्क में वो खून से सने बिस्तर फेंक दिये।

उसी दिन शाम को अचानक पुलिस वाले कुछ पूछताछ करने आये ।
उनमें से एक पुलिस अधिकारी हमारे रिश्तेदार थे सो पिता जी के आमंत्रण पर चाय पीने घर आये ।
बातों बातों में उन्होंने मां -पिताजी को बताया की एक नामचीन कालेज में पढ़ने वाले लेकिन आपराधिक प्रवृत्ति वाले कुछ लड़कों ने उसी कालेज की छात्रा जो हास्टल में रहती थी को कल दिन में कालेज के बाहर से किडनेप कर लिया ।
और उसका सामुहिक बलात्कार किया ।
रात में लड़की मौका देखकर निर्वस्त्र अवस्था में भागी ।
उन लोगों ने उसका पीछा किया ,उसे मारने के लिए और खबर है वो लड़की इसी तरफ आई थी ।
बिचारी बच्ची के माता पिता का बुरा हाल है।
उनमें से एक गुंडा पकड़ा गया आज सुबह उसी ने सारी कहानी बताई।
आगे पुलिस अंकल ने पूछा क्या आपने उस लड़की को देखा ।
मेरे मा पापा स्तब्ध थे ।
साथ ही स्तब्ध थी हमारी पूरी कालोनी।
एक अपराधबोध का भाव सबको खा रहा था ।
लेकिन क्या मेरे कालोनी वाले उन बलात्कारियों के समान अपराधी नहीं थे।
गुंडों ने अगर उसका शारीरिक शोषण किया था तो क्या हमारी कालोनी ने उसका मानसिक शोषण नहीं किया था ।
आज भी बचपन की ये घटना मेरी रूह कपां देती है।
आज भी मेरी आंखे उन दीदी को ढूंढती है जिनके साथ गलत किया था मेरे आसपास रहने वाले मेरे अपनों ने ।
काश एक बार मैं उनसे माफी मांग सकूं की माफ कर दो उन‌ नर पिशाचों को जो सभ्य समाज में रहते हैं बड़े बड़े विषयों पर सरकार और प्रशासन को दोष देते हैं लेकिन जहां इन्सानियत की बात आती है तो इतना घृणित कार्य करने से नहीं चूकते।

✍ राधा

Guest Post Tradition

Does Hand sickle Really Live up to the Hype?

   दांतली [ मेवाड़ी राजस्थान बहु उपयोगी  कृषि उपक़रण ]

आज के समय से दूर थोड़ा दूर एक समय रहता है|
जिसमें रहती है कई कहानियां किस्से जो दिलों को जोड़ देते हैं।गांव और शहरों के मोबाइल नामक वायरस के चपेट में आने के बस कुछ पहले ,हां कुछ ही पहले की ही तो बात है।

हरे भरे खेतों के बीच से निकलती गांव की  गोरियां ।
कहीं दूर से आती आवाज – ऐ दारियां जट जट चालो ,घरे जाईन रोटा पोणा  है।
हरा पीला लूगडा़ ओढ़े छोरियां
“ऐ धापूड़ी थारी दांतेड़ी मैं चारा में देखी
वटेइस भूल गी बापू कुटेला दारी ने” धूलकी अपनी छोटी बहन पर नाराज होती बोली।
“थू परी लाती अटे आईन भजन हुनाईरी मने” धापूड़ी पलट वार करती हुई।
वहां थी हंसी ठिठोली और थी दांतेड़ी ।

खेत में जाने से पहले किसान का मुख्य हथियार फसल की जब हाथों से कटाई की जाती तो किसानों की सहभागी सिर्फ ये दांतली होती ।

दांतली से रजका काटना भी एक कला की बात थी केवल सधा हुआ हाथ ही ऐसे कमाल कर पाता था।
गांवों में बस्ती से दूर खेतों में ,कई बार जंगलों में लकड़ी लेने जाते हुए औरतों का स्वाभिमान बचाती थी ये दांतेड़ी

कई पुराने किस्सों और हादसों में महिलाओं ने इसी दांतली का इस्तेमाल करके मां रण चंडी का रूप धारण कर मानव रूप में भटकते कई शुंभ और निशुंभों का वध किया था ।
रसोई में सब्जी काटने का एकमात्र औजार थी ये दांतली चाकू का प्रयोग तब ना के बराबर था।
लेकिन समय किसी का नहीं रहता ,घर का सबसे जरूरी औजार ,मार्ग का सहचर , किसानों की साथी ये दांतली आज कहीं खो गई है।

इतिहास में गुम हुई दातंली का आज के बच्चे तो शायद नाम भी नहीं जानते ।
खेर दातंली आज भी हमारे दिल के करीब है बहुत करीब और जब तक हमारी पीढ़ी जिन्दा है बचपन की यादों से हम इसे लेकर आते रहेंगे।

Guest Post Humans of Udaipur

 

               

उदयपुर | लेकसिटी ओपन शतरंज प्रतियोगिता में प्रदेश की सबसे कम उम्र की खिलाड़ी कियाना परिहार अपने से दोगुने एज ग्रुप में विजेता बनी हैं। 7 साल की कियाना ने सीनियर कैटेगरी में खेलते हुए अंडर-15 कैटेगरी में चैंपियन बनी।

राजस्थान के उदयपुर की रहने वाली छह साल की बच्ची अच्छे-अच्छे खिलाड़ियों को शह और मात दे रही है. हम बात कर रहे हैं कियाना परिहार की, जो शतरंज की माहिर खिलाड़ियों में से एक मानी जा रही है. जिला स्तरीय प्रतियोगिताओं के साथ-साथ नेशनल में भी अपना सिक्का जमाने वाली कियाना दुनिया की सबसे यंगेस्ट ग्रैंड मास्टर का खिताब हासिल करना चाहती है|

कियाना के पिता जितेंद्र परिहार ने बताया कि जब वो ढाई साल की थी तभी से उसके साथ उन्होंने चेस खेलना शुरू किया. इसके बाद कियाना की ऑफिशल ट्रेनिग पांच वर्ष की उम्र से दिलाना शुरू की. कियाना 2 बार राजस्थान स्टेट चैंपियन बन चुकी है एंड अंडर 7 नेशियनल स्कूल चैंपियनशिप में गोल्ड-सिलवर मेडल ले चुकी है. वहीं, अंडर -8 चैंपियनशिप में भी उसने 13वीं रैंक हासिल की है|राजस्थान की सबसे कम आयु में अंतरराष्ट्रीय फ़िडे रेटिंग हासिल करने का रिकॉर्ड अपने नाम कर चुकी है ।

यह गर्व की बात है कि कियाना परिहार को 1 सितंबर, 2022 को FIDE (अंतर्राष्ट्रीय शतरंज संघ) द्वारा घोषित विश्व रेटिंग सूची में रेटिंग प्राप्त हुई और कियाना राजस्थान में FIDE रेटिंग प्राप्त हुई है ।सबसे कम उम्र (6 साल 10 महीने )की खिलाड़ी हैं। 15 अगस्त 2022 को उदयपुर जिले में स्वतंत्रता दिवस समारोह समारोह में जिला कलेक्टर श्री टी सी मीणा और राज्य के कैबिनेट मंत्री श्री प्रताप सिंह खाचरियावास (परिवहन और सैनिक कल्याण विभाग) द्वारा सम्मानित किया गया।

कियाना ने कूडो भी खेला और वह एक मार्शल आर्ट फाइटर हैं, उन्होंने 21 सितंबर’21 को हिमाचल में आयोजित कूडो नेशनल टूर्नामेंट 2021 में स्वर्ण पदक जीता है साथ ही कुडो 2021 में स्वर्ण पदक जीता है । वह माउंट लिटेरा जी स्कूल उदयपुर की मेधावी छात्रा है जो ग्रेड-2 में पढ़ रही है।कियाना बोर्ड पर और साथ ही ऑनलाइन और शतरंज इंजन के साथ रोजाना 6 से 8 घंटे अभ्यास करती है, वह पहले से ही लिचेस प्लेटफॉर्म पर 2000+ रेटिंग पर पहुंच गई है और सबसे कम उम्र के ग्रैंड मास्टर बनने पर ध्यान केंद्रित किया है। शतरंज को धैर्य और ध्यान देने की आवश्यकता होती है और उसके माता-पिता हमेशा उसे खुश और शांत करने की कोशिश करते हैं। वह रोजाना सफलता पाने और नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार होने की प्रार्थना करती है|

 

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अबार बालाजी ऊं वात वी
मैं क्यों कई बालाजी
यो सियाला ऊं डारेक्ट चौमासो

यो भी ठीक पण अबरके
असो कई सिस्टम हेक वियो आपरो
यो राजस्थान रो कश्मीर है
भारत रो कोई नी

अटे बरफ कई कांम पाड़ी
मां सब तो डापाचूक वेग्या

बालाजी क्यो देख राधारानी
था उदेपर वाला री डीमांड घणी ही
बस बरफ री कमी है बाकी उदेपुर कश्मीर है

राम जी क्यो एक ट्रक बरफ रो
मेवाड़ उपरे नाक दो।

मैं क्यो वा ओ वा बालाजी म्हारा
कई वेण्डा किदा
बापडा़ वींद पणता टेम
कोट पेरे के रैन कोट ।

ने वरातिया री तो वात मती पूछो
जीमे तो कितर
तापड़ा में मुण्डो गाले के थाली
हमज नी आईरो

ने सबूं मोटी वात
बरफ मे पेरवा रा गाबा
तो माणे पा हे ई कोईनी

थोडो़ तो विचार करो हुकुम

बालाजी पेला तो जोर ऊं हास्या पछे क्यो

मूं जाणू भाया था मेवाड़ रा मनक
थाणी वाता ने गदेड़ा री लातां
कदी जस नी है ।

ओर केवो उदेपुर ने कश्मीर

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Puppet Dance & Culture

ढोल मंजीरों की आवाज के साथ ,ठेठ देशी भाषा के लोक गीतों व कथाओं में वीर गाथाओं का गायन और उनके साथ ही पर्दे पीछे बैठे व्यक्ति के हाथों में बंधी उंगलियों पर नाचती ,अपनी संस्कृति कला और वीरों के इतिहास को अभिव्यक्त करती रंग-बिरंगी कठपुतलियां। इन्टरनेट, मोबाइल, कम्प्यूटर,सोशल मीडिया से दूर हमारा बचपन गांवों और शहरों में लगने वाले मेलों में कठपुतलियों को नाचता देख कैसा आन्नद से भर उठता था।कठपुतली नृत्य – बचपन की कुछ अनोखी यादें, जिसे सरकार द्वारा पुनः जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।

लेकिन आज वो लोक कला जैसे कहीं खो सी गई है।
इस लोक कला को बचाने का बीड़ा अब सरकार ने उठाया है और साधारण लोक कलाकारों को हाशिए पर रख बड़ी कम्पनियों को टेंडर दिये जा रहे हैं उसी क्रम में 2 अक्टूबर, गांधी जयंती पर जवाहर कला केंद्र, जयपुर में कठपुतली नचाने का काम इंडियन क्राफ्ट डिजाइन और बेयरफुट कंपनी को दिया गया, जिसका उदघाटन मुख्यमंत्री ने किया। विश्व स्तर पर भी जागरूकता अभियान के तहत 21 मार्च को कठपुतली दिवस घोषित किया गया है।

खैर इसकी चर्चा से पहले जानते हैं रोचक किस्सा की कैसे कठपुतली का सृजन हुआ।
वैसे तो सबसे पहले ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनि के अष्टाध्याई ग्रंथ में पुतला नाटक के बारे में जानकारी मिली। पुरानी मान्यता तो यह भी है कि भगवान शिव ने मां पार्वती को खुश करने के लिए काठ के पुतले में प्रवेश करके नृत्य किया,  सिहासन बत्तीसी मैं राजा विक्रमादित्य के 32 पुतलियों का सिहासन में जड़े होने का उल्लेख भी है। इतिहास की खिड़कियों से उस पार जांकने पर एक बात स्पष्ट दिखती है की कहीं ना कहीं कठपुतलीयों का अविष्कारक और विश्व में इसे पहचान दिलाने वाला देश भारत ही है, कटपुतली केवल एक लोक कला नहीं वरन अपने आप में भारतीय संस्कृति को समेट कर संजोए रखने वाला सुन्दर ऐतिहासिक चित्रण है। हमारी संस्कृति और स्वर्णिम भारतीय इतिहास के प्रचार प्रसार का सशक्त माध्यम है कटपुतली नृत्य कला । भारत में भी चार प्रकार की कठपुतलीयों का मंचन अलग अलग राज्यों में किया जाता है। किन्तु काठ से बनी पुतलियों के मंचन का श्रेय नागौर के भाट समाज को जाता है। तो हुआ यूं कि लगातार सूखे और अकाल कि मार झेल रहे क्षेत्र में भाट समाज के व्यक्तियों ने लकड़ी के मुंह वाली सुन्दर चमकदार वस्त्रों से सुसज्जित गुड़िया बनाकर शाही घरानों और आसपास के नगरों में बेचना शुरू किया। गुड़िया बेचने से पहले गुड़िया को नचाकर ग्राहकों को आकर्षित करते थे। पर गुड़िया बैचने में इतना मुनाफा नहीं होता था । धीरे-धीरे कुछ लोग लोक कथाओं के किरदार बना कर उन काठ की पुतलियों को नचाने लगे ,वीर अमर सिंह जी कि गाथा सबसे ज्यादा गायी जाती थी । इस तमाशे को दिखाकर उनको बेचने से ज्यादा लाभ मिलता था। धीरे-धीरे राजे रजवाड़ों में कठपुतलीयों के नृत्य का मंचन होने लगा। राजा अपने परिवार और राजघरानों की वीर गाथाओं का मंचन करवाते । भाट समुदाय के पास पुरा काल से ही राजाओं की वंशावली रहती थी अतः वे उसका मंचन करने लगे। घर के बड़े अपने बच्चों को यह कला सिखाते रहे और पीढ़ी दर पीढ़ी इसका विकास होता रहा। कठपुतलियां इस समाज को कितनी प्रिय है इसका अनुमान इसी से लगता है कि पुरानी हो जाने पर ये लोग कठपुतलीयों को फैंकते नहीं वरन् जल में प्रवाहित कर देते हैं और मान्यता है कटपुतली जितना दूर तैरती जायेगी उतना शुभ होगा। वो काल कठपुतली कला का स्वर्णिम काल था ।

किन्तु समय किसी के वशीभूत नहीं होता अत: आधुनिकीकरण की भेंट में चढ़ी अन्य लोक कलाओं की भांती कटपुतली कला भी स्वयं को सुरक्षित न रख सकी। जीविका के नये सुदृढ़ संसाधन जुटाने के प्रयास में इस समाज की नयी पीढ़ी ने इस कला को हाशिए पर रखना उचित समझा और वहीं जो लोक कलाकार इस कला में पारंगत हैं उन्हें आगे बढ़ाने के बजाय सरकार ने भी सरकारी संस्थानों में कम्पनियों को टेंडर देकर इन लोक कलाकारों को भुखमरी की स्थिति में ला खड़ा किया है। ये कटपुतली मंचन केवल एक नृत्य नहीं है अपितु कितनी पीढ़ीयो की तपस्या है, अंगुली पर इस प्रकार मंचन‌ करना किरदारों में कहानी के हावभावो को भरना , कहानी का सुन्दर चित्रण, साथ ही गीतों के माध्यम से कथानक को प्रस्तुत करना ,एक विशेष प्रकार कि सी टी का प्रयोग करना जो कटपुतली नृत्य में जान डाल देता है । ये कोई एक दो दिन का नहीं अपितु कई वर्षों की साधना और तपस्या का परिणाम है ।

आज आवश्यकता है इन लोक कलाकारों को पहचान दिलाने की , बड़े सिनेमा हाल में 300-400 रूपये के टिकट खरीदने वाले हम लोग जब कहीं कटपुतली मंचन या कोई भी लोक कला का प्रस्तुतीकरण देखते हैं तो इन‌ कलाकारों के हौसले को बढाने के लिए 10 रूपये भी जेब से नही निकाल पाते ।

लोक कला और इसके कलाकारों को गला घोंट कर मारने में केवल सरकार नहीं अपितु हम लोग भी बराबर के दोषी हैं।
आज के बाद जब भी कहीं किसी लोक कला अथवा कटपुतली नृत्य का मंचन देखें तो केवल मनोरंजन करके आगे न बढ़े बल्कि इनकी कला को उचित सम्मान देकर श्रृद्धा अनुसार सहयोग दें ताकि ये लोक कलाकार आर्थिक कारण से इस कला से विमुख ना हो।

जिस प्रकार हमें हमारी ऐतिहासिक धरोहर सम्भालनी है ठीक उसी प्रकार हमारी लोककलाएं भी हमारी सांस्कृतिक विरासत है , इन्हें भी हमें संजोना है।